दरअसल, अफसरों और राजनीतिक रसूख के इस गठजोड़ ने बहुत सारे खेल किए हैं। इसे ऐसे समझ सकते हैं। 2006 में तत्कालीन जिलाधिकारी ने जनता की मांग पर 52 एकड़ जमीन मेडिकल कॉलेज के लिए आरक्षित कर दी थी। बाद के वर्षों में प्रशासन के पास कई प्रोजेक्ट्स की फाइल पहुंची, जिसे प्रशासन ने उसी आरक्षित भूमि पर बनाने की सहमति दे दी, जबकि अफसरों को साफ पता था कि इतनी बड़ी सरकारी भूमि सिर्फ यहीं बची है। अफसरों ने नेताओं के दबाव में दूसरी सरकारी जमीनों से अतिक्रमण हटाने की बजाय मेडिकल कॉलेज की भूमि ही स्कूल, हाउसिंग बोर्ड और छात्रावास (अब मेडिकल कॉलेज का हिस्सा) को दे दी।
इसी बीच उसके अंशभाग में पीएम आवास के लिए भी जमीन आवंटित हो गई। अभी यह खेल चल ही रहा था कि 2018 में सतना मेडिकल कॉलेज की स्वीकृति मिल गई। यहीं से अफसर फंसने लगे। कागजों में पहले लगभग 38 एकड़ जमीन मेडिकल को दी गई, फिर डिमांड पर लगभग 8 एकड़ का एक और टुकड़ा दिया गया। लेकिन, यह नहीं बताया कि जो जमीन दी गई है उसका एक हिस्सा अवैध खनन से तालाब बन चुका है। मामले पर पर्दा डालने के लिए वर्क ऑर्डर जारी होने के बावजूद भूमि का सीमांकन भी नहीं किया गया। कागज में भले ही जमीन 46 एकड़ हो, लेकिन भौतिक रूप से 30-35 एकड़ से अधिक नहीं है।
ऐसे में वर्क ऑर्डर के बाद जब मौके पर कार्यदायी संस्था पहुंच चुकी है तो अफसरों का गला सूख रहा है। अब अफसर यह चाहते हैं कि मेडिकल कॉलेज के नक्शे में ही परिवर्तन करा दिया जाए।
ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है। यह छोटा मुद्दा नहीं है। मेडिकल कॉलेज सतना की सबसे बड़ी जरूरतों में शामिल है। सभी को पता है कि इसके लिए जनता ने कितना संघर्ष किया है। सिर्फ कुछ को खुश करने के लिए एक बड़ी आबादी के सपने नहीं तोड़े जा सकते। ऐसे में अब वह समय आ चुका है जब इस बंदरबांट का हिसाब जनता को मिले और उसकी वर्षों पुरानी आकांक्षा की पूर्ति हो।