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अतीत के झरोखे में बिखरे होली के रंग

locationसवाई माधोपुरPublished: Mar 20, 2019 10:47:05 am

Submitted by:

rakesh verma

अतीत के झरोखे में बिखरे होली के रंग

माने में होली के   दौरान का एक दृश्य।

सवाईमाधोपुर के गंगापुर में पुराने जमाने में होली के दौरान का एक दृश्य।

सवाईमाधोपुर. रंगों का त्योहार होली आने वाला है। ऐसे में पत्रिका इस बार पाठकों के लिए अतीत के झरोखे से होली की भूली बिसरी यादों के तहत होली के पुराने प्रारूपों के बारे में जानकारी लेकर आया है। इसी क्रम में पेश है अतीत के झरोखे से भूली बिसरी यादों पर एक रिपोर्ट।

1. गंगापुर में होता था मूर्खों का सम्मेलन
साहित्यकार प्रभाशंकर उपाध्याय ने बताया कि गंगापुर में अग्रवाल समाज की ओर से महामूर्ख सम्मेलन का आयोजन किया जाता था, इसमें शहर के प्रबुद्धजन हिस्सा लेते थे। इसमें मूखर्तापूर्ण प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता था। गंगापुर के गोवर्धन लाल गर्ग सबसे अधिक इस प्रतियोगिता के विजेता बने। अंतिम बार गंगापुर के हरीश पल्लीवाल ने यह खिजाब जीता था। इसके बाद इस आयोजन को भी बंद कर दिया गया।

2. मटकी व कुल्हड़ से खेलते थे होली
धूलंडी की पूर्व रात को कुल्लड़ या मटकियों में कीचड़ भरकर रात के समय दूसरे या तीसरे प्रहर घरों के आंगनों अथवा मुख्य द्वार पर उन्हें फेंक दिया जाता था। जब घर वाले सुबह जागते तो चौक अथवा दीवारों पर वह गंदगी सनी मिलती थी। उस घर के वासी उस अज्ञात व्यक्ति को कोसते जिसने यह करतूत की थी।

3. सड़कों पर सिक्के
होली के त्योहार पर यह एक मनोरंजन का साधन हुआ करता था। बाजारों में पत्थर के चौके की सड़कों पर कुछ दुकानदार सिक्के जमीन में कील की सहायता से चिपका देते थे और राह चलता कोई व्यक्ति भ्रमित होकर उसे उठाने की कोशिश करता था तो वे उसका मजाक उड़ाते थे। कुछ लड़के सूतली के सहारे से तार का एक आंकड़ा लटका देते थे और राहगीर की टोपी या कंधे पर गमछे में उस आंकड़े को फंसा देता था। दूसरा लड़का उसे खींच लेता था। विस्मित होकर वह राहगीर ताकता रह जाता।

4. रणथम्भौर दुर्ग की होली
इतिहासकार गोकुलचन्द गोयल ने बताया कि पुराने जमाने में रणथम्भौर की होली बड़ी प्रसिद्ध थी। किले में केसू, पल्लव आदि से रंग बनाकर होली खेली जाती थी। महिलाओं द्वारा पर्दे में रहकर अलग से होली खेली जाती थी। राव हम्मीर के शासन के बाद क भी कभी यवन व जयपुर राजघराने के शासकों के रणथम्भौर आने पर होली खेली जाती थी।

5. देवर-भाभी की कोड़ामार होली
आज भी घरों में देवर भाभी के बीच होली पर मनोरंजन का चलन है, लेकिन अब इसके तरीकों में कई परिवर्तन आए हैं। पुराने समय का तो रोमांच ही निराला था। भाभियां कपड़े का जो कोड़ा बनाती थीं। उनके एक सिरे पर एक छोटा सा पत्थर बांध दिया जाता था। पानी में भीगा कोड़ा जब सनसनाता हुआ होली खेलने वालों की पीठ पर पड़ता तो वह कई दिनों तक भूल नहीं पाता था।

आलुओं की होली
होली के इस प्रारूप में आलुओं को बीच से दो भागों में काट देते थे तथा उनकी समतल सतह को चाकू की मदद से मैं गाधा हूं आदि शब्दों को उल्टी प्रतिछाया (मिरर इमेज) की तरह खोद देते। उन छापों पर स्याही अथवा रंग लगाकर किसी की साफ सुथरी पोशाक पर पीछे से गुपचुप तरीके से अंकित कर दिया जाता था। जब कोई उस व्यक्ति को टोकता तब उसे पता लगता कि किसी अज्ञात शरारती ने उसके साथ ऐसी कारगुजारी कर दी।

ये बोले कवि व साहित्यकार…
रणथम्भौर दुर्ग में प्राचीन समय से होली का पर्व मनाया जाता था। तब फलों के रस व पानी के रंग बनाए जाते थे, लेकिन बाद में किसी अतिथि के आने पर ही होली का त्योहार मनाया जाने लगा।
गोकुल चन्द गोयल, इतिहासकार, सवाईमाधोपुर।

होली के अवसर पर करौली में गांवों में एक माह पहले से ही होली शुरू हो जाती है। इससे बच्चे व महिलाएं होली खेलती हैं। होली पर अन्न को नया पुराना किया जाता है। गोबर की माला (बड़ोली) बनाई जाती है। इसे होली का दहन में डाला जाता है।
प्रभात, कवि व साहित्यकार।

करौली में परीता नाम का गांव है। दूसरे गांव के लोग होली का डांडा उखाड़ ले गए। इसके बाद गांव के एक युवक ने होली का डांडा वापस लाने का प्रयास किया, लेकिन वह उसे उखाड़ नहीं सका। तब से लेकर आज तक परीता गांव में होली के डांडे की सुरक्षा की जाती है।
प्रभाशंकर, उपाध्याय, साहित्यकार।
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