वैज्ञानिकों ने 3D प्रिंटेड बॉयोरिएक्टर में बनाए ब्रेन टिश्यूज, दिमाग से जुड़ी बीमारियों पर हो सकेगा शोध
इन ऑर्गेनॉइड्स की मदद से हम मानव दिमाग की संरचना, दिमाग से जुड़ी बीमारियों तथा दूसरी चीजों की जांच-पड़ताल आसानी से कर सकेंगे।

जैसे-जैसे विज्ञान तरक्की कर रहा है, वैसे-वैसे मानव जाति के सामने एक नया भविष्य आकार लेता नजर आ रहा है। जो कुछ अब तक असंभव माना जाता था, वो धीरे-धीरे संभव लगने लगा है। वैज्ञानिकों ने हाल ही में एक छोटे 3D प्रिंटेड बॉयोरिएक्टर में सेल्फ-ऑर्गेनाइजिंग ब्रेन टिश्यू (इन्हें ऑर्गेनॉइड्स भी कहा जाता है) डवलप करने में कामयाबी हासिल कर ली है। इन ऑर्गेनॉइड्स की मदद से हम मानव दिमाग की संरचना, दिमाग से जुड़ी बीमारियों तथा दूसरी चीजों की जांच-पड़ताल आसानी से कर सकेंगे।
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अब रिसर्च करना होगा आसान और सस्ता
इस तरह की रिसर्च करने के लिए वैज्ञानिकों को कुछ इस तरह के सिस्टम्स बनाने होते हैं जहां पर इन टिश्यूज को बनाया जा सके और उन्हें विकसित किया जा सके। इस टेक्नोलॉजी के तहत बॉयोरिएक्टर्स या पेट्री डिशेज को बनाने के लिए माइक्रोफ्लूड्स को बहुत ही सूक्ष्म नलिकाओं से निकाल कर एक छोटी चिप या प्लेटफॉर्म पर रखा जाता है। वर्तमान में मौजूद टेक्नोलॉजी को काम लेते हुए ऐसा करना काफी महंगा पड़ता है और उसमें समय भी अत्यधिक लगता है परन्तु इस नई खोज से यह काम न केवल बहुत सस्ता हो जाएगा वरन कम समय में ही तैयार भी हो सकेगा, इस कारण हम कम समय में ज्यादा शोध कर सकेंगे।
इस तरह बनाया गया था मॉडल
इन ब्रेन टिश्यूज को डवलप करने के लिए 3D बॉयोरिएक्टर बनाया गया था। नई तकनीक को काम लेते हुए इन रिएक्टर्स को बनाने की लागत 5 डॉलर प्रति यूनिट तक हो जाती है जो सैकड़ों या हजारों डॉलर प्रति यूनिट की तुलना में काफी कम है। नई तकनीक में स्ट्रक्चर बनाने के लिए बॉयोकम्पेटिबल रेजिन (जिसका दांतों की सर्जरी में भी प्रयोग किया जाता है) का प्रयोग किया गया। इस प्रकार बनी चिप को अल्ट्रावॉयलेट रोशनी में रखा गया और बाद में उसे स्टरलाइज्ड किया गया। इस तरह तैयार होने के बाद इस यूनिट में जिंदा सेल्स या टिश्यूज को रखा गया। इन यूनिट्स में न्यूट्रिएंट्स मीडियम तथा दवाओं की थोड़ी मात्रा डाल कर उसे ग्लास से कवर कर सील कर दिया जाता है।
क्यों अहम है यह खोज
इस खोज में मानव सेल्स को काम लेते हुए दिमाग की कोशिकाओं को विकसित करने का प्रयोग किया गया। इसके बाद उन पर दवाओं व अन्य केमिकल्स का प्रभाव देखा गया। इस तरह हम बिना किसी जिंदा जीव को खतरे में डाले अपने सभी प्रयोग कर सकते हैं और दवाओं की प्रभावशीलता को परख सकते हैं। वर्तमान में किसी भी दवा की प्रभावशीलता को जानने के लिए हम उसे सबसे पहले जानवरों पर टेस्ट करते हैं, इसके बाद मानवों पर प्रयोग किया जाता है। इस दौरान यदि कोई दुष्प्रभाव होता है तो कई बार हमारे पास उसे रोकने के पर्याप्त उपाय भी नहीं होते हैं। यह टेक्नोलॉजी इसी समस्या को दूर करेगी और हम लैब में बिना किसी जिंदा व्यक्ति पर प्रयोग किए किसी दवा के प्रभाव का सटीकता से अनुमान लगा सकेंगे।
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