नूर ने बताया कि उनका दल पश्चिमी अफ्रीका के मारटानिया के ताओदेनी बेसिन में खोज कर रहा था और वहां समुद्री काले पत्थर से बीच से यह रंग मिला। नूर ने आगे बताया कि यह रंग क्लोरोफिल मालेक्यूलर जीवाष्म से बना होगा। इसका उत्पादन समुद्र में रहने वाले प्राचीन प्रकाश संश्लेषक जीवों के जरिए हुआ होगा और बाद में उनके अस्तित्व में न रहने के बावजूद यह कायम रहा। यह अपने आप में एक वैज्ञानिक अजूबा है।
नूर का कहना है कि उनकी खोज का आधार भी यही था कि अरबों साल पहले रंग का उत्पादन कैसे हुआ होगा। प्राचीन रंग क्रमों के विश्लेषणों से ये बात साबित हो पाई कि एक अरब साल पहले छोटे छोटे साइनोबेक्टीरिया समुद्र में अनवरत चलने वाली खाद्य श्रंखला का आधार थे। बाद में इनका अस्तित्व खत्म हो गया। इससे यह भी पता चला कि उस समय जानवर क्यों नहीं थे। समुद्र ज्यादा बड़ा था और थल कम था। समुद्र के बड़े और सक्रिय शैवाल समय के साथ आहार न होने के चलते गायब होते गए और सबसे पहले इसका असर साइनोबेक्टीरिया पर पड़ा जो शैवाल के मुकाबले कई गुणा छोटे थे।