एक सदी पुराना सपना, एक दशक पहले हुआ सच
हालांकि वीडियोकान्फ्रेंसिंग के जरिए बातचीत करने की इस तकनीक का सपना एक सदी से पहले देखा गया था। लेकिन यह एक दशक से लोगों की आम जिंदगी का हिस्सा बन गया है। ‘ऐपल फेसटाइम’ और ‘स्काइपी’ के रूप में बीते कुछ सालों से यह सुविधा मौजूद है। महामारी में वीडियोकान्फ्रेंसिंग आम आदमी से लेकर डॉक्टर से लेकर क्लास तक इसी पर आधारित थे। अचानक लाखों-करोड़ों लोग अपना दिन एक स्क्रीन के सामने बैठकर बिताने लगे। जहां एक ही समय पर बहुत से चेहरे हमें घूरते हुए दिखाई पड़ते हैं। जल्द ही ‘जूम फटीग’ जैसी मानसिक परेशानी सामने आई। लोग वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के बाद एक विशिष्ठ प्रकार की थकावट की शिकायत कर रहे थे। आखिर ऐसा क्यों है कि दिन में कुछ घंटे वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर लोगों से बात करने की तुलना में हम ऑफिस में 6 से 8 घंटे आमने-सामने की बातचीत में इतनी थकावट महसूस नहीं करते।
साइकोलॉजिकल इफेक्ट से होती है थकान
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में वर्चुअल ह्यूमन इंटरेक्शन लैब के संस्थापक निदेशक जेरेमी बैलेन्सन दो दशकों से अधिक समय से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग पर शोध कर रहे हैं। उनके अनुसार वर्चुअल कम्यूनिकेशन हमें मानसिक रूप से प्रभावित करता है। जर्नल, टेक्नोलॉजी, माइंड एंड बिहेवियर में प्रकाशित जेरेमी के शोध पत्र में जेरेमी ने वीडियोकॉन्फ्रेंसिंग से होने वाली थकावट के चार मुख्य कारणों की पहचान की है।