जी हां यह कहानी आष्टा से 10 किमी दूर नानकपुर के शैलेंद्र कुशवाहा (19) और उसकी बहन नेहा (16), नैनसी (14) की है। शैलेंद्र बताते हैं कि साल 2010 में पिता सागर कुशवाहा की मौत के बाद विधवा मां उर्मिलाबाई के सामने मानों पहाड़ जैसी स्थिति खड़ी हो गई। एक तरफ मां के सामने छोटे, भाई बहनों का पालन पोषण तो दूसरी तरफ तीन एकड़ जमीन में बिना कृषि यंत्र के सहारे खेती करना एक चुनौती था। उस समय महज आठ साल की उम्र में विधवा मां के साथ खेती में हाथ बटाना शुरू किया, लेकिन परेशानी कम नहीं हुई।
बैल खरीदने तक के नहीं पैसे
शैलेंद्र ने बताया कि आर्थिक तंगी के चलते बैल और अन्य कृषि संसाधन खरीदना संभव नहीं था। इस कारण शुरूआत में खेती में जुताई करने मां हल जोतती थी, जबकि वह पीछे से हल को धक्का देकर सहारा देते थे। बहन बड़ी हुई तो पांच-छह साल से उन्हीं की मदद से खेती करते हैं। बहन ही दोनों तरफ हल को पकड़कर खींचती हैं और वह पीछे से धकाते हुए चलते हैं। इसी तरह से बुआई का कार्य करते हैं। बोवनी के लिए खाद बीज की व्यवस्था करने मजदूरी कर पैसे जुटाना पड़ते हैं।
आवास योजना तक का नहीं मिला लाभ
सोमवार को पत्रिका टीम ने शैलेंद्र के घर पहुंचकर हकीकत जानी तो चौकाने वाली मिली। उसकी विधवा मां उर्मिलाबाई ने पत्रिका को बताया कि 10 साल से एक बेटे और दो बेटियों के साथ परेशानी से जूझ रही है। जिस मकान में रहती है वह कच्चा और खपरेलू वाला होने से बारिश के मौसम में पानी भर जाता है। प्रधानमंत्री आवास योजना में आवास और न ही शौचालय का लाभ मिला। यह तक ही नहीं पति की मौत के बाद आर्थिक स्थिति बेकार होने पर भी अन्य योजनाओं के लाभ से वंचित हैं। पिछले तीन साल से सोयाबीन फसल बर्बाद होने से मां, बेटे और बेटी को मजदूरी पर जाकर पेट भरना पड़ रहा है। उर्मिलाबाई का आरोप है कि ग्राम पंचायत में कई बार समस्या बताकर मदद की गुहार लगाई, लेकिन सुनवाई नहीं हुई है।