जैनमुनि ने कहा मशीनरी जैसा हो गया है आज इंसान का जीवन
सिवनीPublished: Jul 13, 2021 09:21:15 pm
आचार्य आर्जवसागर महाराज ने दिए धर्म उपदेश
जैनमुनि ने कहा मशीनरी जैसा हो गया है आज इंसान का जीवन
सिवनी. लखनादौन नगर के महावीर भवन में चल रही धर्म देशना में जैनमुनि आचार्य आर्जवसागर महाराज ने कहा कि हर आदमी अक्सर ऐसा कहता है कि मुझे शांति चाहिए, लेकिन कभी चिंतन किया कि शांति हम से दूर क्यों हैं। ध्यान में भी हमारा मन स्थिर क्यों नहीं हो पाता। मन की चंचलता का आखिर कारण क्या है? सच यह है कि चाहे अशांति है अथवा चंचल मन की स्थिति, इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। जब जीवन में तरह-तरह के विकल्प बढ़ते ही जा रहे हैं तब उलझनें भी उसी रफ्तार से बढ़ते हैं। जीवन इतना मशीनरी जैसा हो गया कि दिन भर इधर-उधर भागा दौड़ी में समय गुजरता है। जितनी आदमी के जीवन में व्यस्तता बढ़ रही है, उतना ही वह तनाव से घिर रहा है। यह चाहिए, वह चाहिए, ऐसा होना चाहिए, उससे यह कहना, उसे गिरा देना, उसकी ख्याति को मिट्टी में मिला देना आदि विषय वासना की आकांक्षाओं और इंद्रियों की पूर्ति के लिए नित नए-नए विकल्प उत्पन्न होते जा रहे हैं।
आचार्य ने कहा कि जब कोई सीमा संबंधी विवेक ही नहीं है, तो विकल्प भी बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए जब तक हर क्षेत्र में हम अपने विकल्प कम नहीं करेंगे, तब तक वास्तविक शांति कभी संभव नहीं है। अपना धर्म ध्यान भी तभी सार्थक होगा। जब हम नियम संयम की डोरी से अपने को बांध देंगे। तभी उछल कूद छूट जाने से मन शांत होगा। अपने मन को संभाले बिना संसार में आज तक कोई शांति नहीं पा सका। जिसका मन सध गया उसके लिए फिर मोक्षमार्ग एवं मोक्ष असंभव नहीं।
उन्होंने कहा कि अपनी आत्मा को पावन व निर्मल बनाने वाला ही सम्यक ध्यान से परम शांति पा सकता है। इसके लिए अपने मन की संभाल करनी होगी और इसका सबसे उत्तम तरीका यही है कि अब निवृत्ति की तरफ बढे। अपनी इच्छाओं को कम करते हुए मन को अधिकारिक धर्म ध्यान में लगाएं। धर्म-ध्यान केवल मंदिर में ही जरूरी नहीं होता वरन जीवन के पग पग में वह संग होना चाहिए।
आचार्य आगम सागर महाराज ने धर्मसभा में कहा कि अपनी आत्मा को पावन बनाने वाला ही परम शांति पा सकता है। इसके लिए अपने मन की संभाल करनी होगी और इसका सबसे उत्तम तरीका यही है कि। निवृत्ति की तरफ बने अपनी इच्छाओं को कम करते हुए मन को अधिकारिक धर्म ध्यान में लगाएं। धर्म ध्यान केवल मंदिर में ही जरूरी नहीं होता। मरण जीवन के पग पग में संग होना चाहिए।