scriptएक दिन मुंबई खुद मुझे बुलाएगी : पंकज | One day Mumbai will call me itself: Pankaj | Patrika News

एक दिन मुंबई खुद मुझे बुलाएगी : पंकज

locationसिवनीPublished: Apr 02, 2021 10:03:18 am

Submitted by:

akhilesh thakur

बुरे वक्त ने मुझे तपाकर कुंदन बनाया

एक दिन मुंबई खुद मुझे बुलाएगी : पंकज

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सिवनी. पता था एक दिन भाग्य का सूरज उगेगा इसलिए हर दु:ख सहता रहा। पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कहां-कहां से गुजरा हूं। मेरी राह कभी आसान नहीं थी। कभी कांटों से पैर रक्तरंजित हुए। कभी आत्मा लहूलुहान हुई। इस सम्मान को पाने के लिए न जाने कितनी बार अपमान के घंूट पिए। मुझे एक्टिंग और राइटिंग के अलावा और कुछ भाता ही नहीं था। कई नौकरियां खुद छोड़ी कुछ से निकाला गया। जीवन ने जो दु:ख दिया उसे ही अपनी पूंजी बनाया। दु:ख ही मेरी लेखनी में उतरा है। पहले नौकरी में फिर ठेकेदारी के धंधे में जो अनुभव हुए, वहीं एक्टिंग में काम आए। जिंदगी में इतने उतार-चढ़ाव देखें हैं कि अब न तो कुछ पाकर बौराने की इच्छा होती है और न ही कुछ खोने पर गम का कोई पहाड़ टूटता है। यह बात एण्ड टीवी पर आ रहे नए कॉमेडी धारावाहिक ‘और भई क्या चल रहा हैÓ में उम्रदराज कलाकार कुंजबिहारी मिश्रा की भूमिका निभा रहे सिवनी के पंकज सोनी ने ‘पत्रिकाÓ से विशेष बातचीत में कही।
उन्होंने कहा कि मुझे यहां तक पहुंचाने में बहुतों का योगदान है। उनका भी, जिन्होंने मेरी राह में कांटे बोए और मेरी आत्मा को घायल किया। और उनका भी, जिन्होंने मेरे घाव पोंछे। मुझे सीने से लगाया। जिनके कांधे पर सिर रखकर मैं रोया, वो तमाम लोग जिनके दिए हौसले और प्यार ने मुझे यहां तक पहुंचाया है। यह जिंदगी उन्हीं की कर्जदार है। अभिनय और लेखन की शुरुआत स्कूल के दिनों से हो गई थी। शशि और गोपाल इन दो मित्रों के जिक्र के बिना मेरी कहानी अधूरी है। यह वो उम्र थी जब हम सपने बो रहे थे। हमारी मित्रता इतनी घनिष्ठ थी कि एक दूसरे के सपनों में भी हम बे-रोक-टोक आना जाना करते थे। यह दोनों मेरे सपने और उसको पाने की मेरी छटपटाहट के साक्षी हैं। किशोर उम्र के दोस्त अपने दोस्त को उसकी महबूबा से मिलाने के लिए क्या-क्या जतन नहीं करते हैं। एक्टर बनना मेरा सपना था। मेरा सपना ही मेरा मेहबूब था। कहीं पढ़ा था कि दिल्ली में एक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है, जहां एक्टिंग सिखाई जाती है। बस तब से मन बना लिया कि अब तो यही करना है। उसमें एडमिशन के लिए पता लगाया तो पता चला कि उसके लिए स्नातक होने के साथ-साथ नाटकों में अभिनय का कम से कम चार साल का अनुभव होना बेहद जरूरी है। तब हमारे शहर छिंदवाड़ा में नाटकों की कोई परंपरा ही नहीं थी। लिहाज़ा भोपाल जाकर किसी नाटक मंडली में शामिल होने का निर्णय लिया, वहां बुआ के घर रहता था। इतना शर्मिला था कि कभी बता ही नहीं पाया कि बुआ मैं यहां नाटक सीखने आया हूं। उन पर बोझ न बनूं इसलिए पहले एक नौकरी तलाश की। नौकरी में पेमेंट नहीं थी। कमीशन था। सोचा था कि खूब मेहनत करके इतना कमीशन कमा लिया जाय कि आगे जी भरकर सिर्फ और सिर्फ नाटक ही करूं। इतना कमा लूं जो आगे दिल्ली में भी काम आए, लेकिन उस बड़े कमीशन के चक्कर में मुझे बहुत पापड़ बेलने पड़े। कई शहरों के चक्कर काटे। काम में ऐसा उलझा की कब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में एडमिशन की उम्र निकल गई पता ही नहीं चला। एक बड़ी लाइफ चैंजिंग घटना यह हुई की मेरी शादी हो गई। अब गृहस्थी की जिम्मेदारी भी कंधे पर थी। जाने अनजाने मैं एक ऐसी ट्रेन में बैठा दिया गया जो मेरी मंजिल के विपरीत जा रही थी। मैं खिड़की से अपने सपनों को पीछे बहुत पीछे छूटते देखता रहा। पर मैंने हिम्मत नहीं हारी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय न जा सका तो क्या हुआ। भाग्य शायद मेरे बारे में कुछ और सोच रहा था। मेरे शहर में कुछ युवाओं की टोली ने एक नाट्य संस्था ‘नाट्यगंगाÓ बनाने की पहल की और मुझे उसमें शामिल कर लिया, जो कुछ भी सीखा यहीं सीखा। इस संस्था को बनाने में और उसको इतना विशाल स्वरूप देने में हम सभी साथियों ने खून पसीना बहाया है। शौकिया रंगकर्मी अपने जुनून और जिद से रंगकर्म चलाता है। खासकर तब जब आपके कस्बेनुमा शहर में कोई ऑडिटोरियम ही न हो। नाट्य विद्यालयों में शायद ही यह सिखाया जाता हो कि बैडमिंटन हॉल को ऑडिटोरियम में कैसे बदला जाता है या बिना साधन के नाटक कैसे किया जाता है। बड़े शहरों में एयरकंडीशनर ऑडिटोरियम में काम करने वाला एक्टर जब अपने ग्रीन रूम तनाव रहित होकर जब सिर्फ अपने किरदार में डूबा होता है। उसे सपने में भी गुमान नहीं होता होगा कि कस्बों का हमारा शौकिया रंगकर्मी नाटक चालू होने के १० मिनिट पहले तक टिकिट बेच रहा होता है। हममें से कोई नौकरी पेशा था, जिसे नाटक में काम करने के लिए अपने अधिकारी के हाथ पैर जोडऩे पड़ते थे। कोई स्टूडेंट था जिसे हर नाटक के बाद घर मे डांट खानी पड़ती थी। कोई मजदूर था, जिसकी उस दिन की पगार कट गई थी। कुल मिलाकर हम सभी अपने जीवन की तमाम समस्याओं और विपन्नताओं को झेलते हुए अपने जुनून को हवा दे रहे थे। मेरी समस्या थोड़ी अलग थी। मैं शादीशुदा बाल बच्चेदार था। नाटक के साथ रोजी रोटी की भी चिंता थी। उसके लिए क्या-क्या जतन नहीं किए। नेटवर्क मार्केटिंग की। बीमा एजेंट का काम किया। ठेकेदारी की, लेकिन कहते हैं न सरस्वति पुत्रों पर लक्ष्मी की कृपा कम ही होती है तो हमेंशा कर्ज में ही डूबा होता था। उन दिनों मेरे बहुत से यार दोस्त जो फिल्मों में अपना कैरियर बनाना चाहते थे। मुंबई में संघर्ष कर रहे थे। परिवार को छोड़कर मुंबई जाना मेरे लिए असंभव था। उन दिनों मैंने एक कसम खाई थी कि मैं मुंबई तभी जाऊंगा जब मुंबई मुझे खुद बुलाएगी। अपनी कला पर मुझे एतबार था। मैं अपने आप को मांझता रहा। लेखन में भी और अभिनय में भी। बुरे वक्त ने मुझे तपाकर कुंदन बनाया है। जानता था कि काबिलियत जिसके पास होती है, कामयाबी उसकी दासी होती है। सिद्धि के बगैर प्रसिद्धि नहीं मिलती। वक्त मुझे आजमाता रहा। और एक दिन ऐसा आ ही गया जब एक बड़ी फिल्म निर्माता कंपनी ने मुझे मेरे नाटक जहर पर फिल्म बनाने की पेशकश कर दी। आखिर मुंबई ने मुझे खुद बुला ही लिया। फिल्म तो बनने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा, लेकिन बतौर अभिनेता एण्ड टीवी के नए कॉमेडी शो ‘और भई क्या चल रहा है।Ó के जरिए आप सभी के सामने मुखातिब हूं, जो 30 मार्च से हर दिन रात 9.30 बजे टेलीकॉस्ट हो रहा है।
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