कोई एक सत्ता, इस समस्त सृष्टि की है रचयिता
सिवनीPublished: Feb 25, 2020 11:54:37 am
विकल्परहित भाव से ईश्वर को स्वीकारना ही है आस्था
कोई एक सत्ता, इस समस्त सृष्टि की है रचयिता
सिवनी. गो, गीता, गंगा महामंच ने बागरी समाज द्वारा आयोजित रामकथा कार्यक्रम के अंतर्गत लखनवाड़ा घाट में पुण्य सलिला वैैनगंगा का अभिषेक पूजन कर लोगों को गो, गीता, गंगा के महत्व को प्रतिपादित करते हुए उसके संरक्षण संवर्धन के लिए लोगों का आव्हान किया। वैनगंगा के दुग्धाभिषेक कार्यक्रम में बागरी समाज ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और पटेल बाबा की समाधी में माथा टेक अपने पितृपुरुषों का पुण्यस्मरण किया।
गो, गीता, गंगा महामंच द्वारा विगत कई वर्षों से गो, गीता, गंगा के संरक्षण संवर्धन के लिए अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हंै। वहीं द्वितीय दिवस गो पूजन के पश्चात लखनवाड़ा घाट में मां वैनगंगा का अभिषेक पूजन किया गया। इस अवसर पर जिले से आए विद्वानों की एक गोष्ठी का आयोजन भी किया गया। जिसमें बलवंत श्रृद्धानंद ने बताया कि ईश्वर के सम्बंध में साधकों के लिए तीन शब्दों आस्था, श्रद्धा और विश्वास का प्रयोग होता है। सर्वप्रथम तो ईश्वर केवल मानने का ही है। हम अपने जीवन में बहुत कुछ मानते ही हैं। वैसे अधिकांश यह तो मानते ही हैं कि एक कोई सत्ता है, जो इस समस्त सृष्टि कि रचयिता है, परन्तु वही अपना सच्चिदानंद स्वरुप ईश्वर है। परम कृपालु और सबका रखवाला है यह स्वीकृति नहीं बन पाती।
बलवंत श्रृद्धानंद ने कहा कि हमारे न मानने से उनकी सत्ता में कोई अंतर नहीं होता है और हमारे न मानने पर भी वे परम उदार हमारे ऊपर कृपा करना बंद नहीं करते। ऐसा नहीं करते कि मुझे नहीं मानोगे तो सांस नहीं लेने देंगे या इन्द्रियां काम नहीं करेंगी आदि। उन्होंने पूर्ण स्वाधीनता दे रखी है कि हम उन्हें मानें या न मानें। पर यह तो हमारी अपनी आवश्यकता है कि हमें नित्य और सर्वत्र विद्यमान, सामथ्र्यवान और अहैतु की कृपा करने वाले, जो पात्र-कुपात्र का विचार किए, बिना ही कृपा की अनवरत वर्षा करते हों – ऐसे ईश्वर का सहारा चाहिए। उनके होते हुए हम अनाथ और असहाय नहीं हैं, मात्र उनको स्वीकार करके अपने को सनाथ और किसी समर्थ का सम्बल प्राप्त है, ऐसा अनुभव करें।
उन्होने कहा कि ईश्वर हैं, सर्वत्र हैं, सदैव हैं, सबके हैं, ऐश्वर्यवान हैं और अद्वितीय हैं। वे हमें जानते और मानते भी हैं। यह तो हमारी भूल है कि हम उनसे विमुख हैं। वे तो लालायित रहते हैं कि यह मेरा अपना कब मेरी ओर निहारे। वे तो पूर्ण हैं, उन्हें किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है। उन्हें तो मात्र प्रेम चाहिए। हमें तो उनकी सत्ता स्वीकार करके उनसे आत्मीय संबंध मानकर उनका प्रेमी बन जाना है। अगर उनसे कुछ मांगना ही है तो मात्र यह कि प्रभु तुम मुझे प्यारे लगो, मुझे अपना प्रेमी बना लो, क्योंकि प्रभु-प्रेम से अधिक मूल्यवान कुछ ओर इस सृष्टि में है ही नहीं। सो विकल्परहित भाव से उन्हें स्वीकार करने का नाम ही आस्था है। उनकी महिमा को स्वीकर करना आस्थावान में श्रद्धा उत्पन्न करता है। श्रद्धा के जाग्रत होते ही एक ही विश्वास, एक ही संबंध, एक ही चिंतन रह जाता है कि केवल और केवल तुम ही मेरे हो।