चाय खत्म होते ही राजनीतिक चर्चा हमने बीच में छोड़ दी और चल पड़े। हमने केशवाही से रूपौला की तरफ वाहन दौड़ा दिया। ये सड़क अच्छी थी लेकिन हम बहुत देर तक इस पर नहीं चले। हमने मुख्य सड़क छोड़ पगडंडियों को अपना हमसफर बनाया। वाहन हमारा फिर हिचकोले खाने लगा। हम चितरौड़ी गांव से होकर घनीभूत जंगलों के बीच से गुजरकर पिपरिया बांध पहुंचे। करोड़ों की लागत से बना ये बांध खुद भी प्यासा है। ये बांध और उससे निकलने वाली जर्जर नहरें नक्सल प्रभाव को खत्म करने के लिए बनाई गई थीं। गरज ये थी कि इनसे ग्रामीणों के जीवन में सुधार आएगा, लेकिन हालात जस के तस। जो सड़कें कागजों में बनकर लाखों रुपए खा गईं वे असल में पगडंडियां ही हैं। स्टाप डेम भी पानी रोकने में प्रभावी नहीं हुए। बांध से ही सटे गांव सेमरिहा निवासी किसान बिसाहूलाल से हमने बात की। पूछा आप लोग बांध का विरोध क्यों कर रहे हैं? तो बिसाहूलल ने कहा कि पानी रुपौला और चितरौड़ी को मिलना है, लेकिन जमीन हमारी जाएगी।
सेमरिहा से ही अंदरूनी रास्ते होते हुए हम छोटी कला और फिर कुलमी छोट गांव पहुंचे। कुलमी छोट में भी एक बांध बना हुआ है। इसके विस्तार की योजना चल रही है। इस बांध के विस्तार को लेकर कुलमी छोट के लोगों को आपत्ति है। लोगों ने तीखा विरोध भी किया है। कुलमी छोट निवासी दीपक शर्मा ने कहा कि हम जमीन नहीं दे सकते। पानी भुमकार और बिलटुकरी को मिलना है। जमीन हमारी चली जाएगी। पिछली बार जमीन ली गई थी, उसका मुआवजा नहीं मिला है। इस बार भी कोई उम्मीद नहीं। शर्मा ने साथ में ये भी बताया कि बांध का विस्तार एक निजी कंपनी के पावर प्लांट के लिए किया जा रहा है। किसानों के लिए तो पर्याप्त पानी है। पावर प्लांट का नाम आते ही धान की फसल के लिए खलिहान बना रहे बाबू लाल ने कहा कि अभी हाल ही में एक कंपनी ने 76 एकड़ जमीन खरीदी है। साथ में आश्चर्य जताया कि आदिवासियों की जमीन कोई कंपनी कैसे खरीद सकती है? किसान ने अपना डर भी जाहिर किया कि आज उनकी खरीदी है कल मेरा नंबर भी आएगा। कुलमी छोट से जंगल के रास्ते होकर हम झींक बिजुरी की तरफ चले। बीच में ही एक गांव पड़ता है मिरकान। यहां पर एक बोर्ड लगा हुआ था। इस बोर्ड में सड़क निर्माण का विवरण था। सड़क की लागत थी 62 लाख 76 हजार रुपए। हमने सड़क खोजने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे। थोड़ी ही देर में झींक बिजुरी पहुंचे।
करोड़ों का अस्पताल भवन लेकिन डॉक्टर नहीं
झींक बिजुरी में किसी ने हमसे अस्पताल का हाल जानने के लिए आग्रह किया। हम निकले तो खूबसूरत भवन का दीदार हुआ। कुछ मरीज अस्पताल से नहीं बल्कि अस्पताल कैंपस में बने एक आवास जैसे भवन से इलाज कराकर लौट रहे थे। पूछने पर बताया कि डॉ. आरके तिवारी मरीजों का इलाज कर रहे हैं। कितनी फीस ले रहे हैं? 50 रुपए। क्यों ले रहे हैं? तो आदिवासी महिलाओं ने बताया कि आज अस्पताल की छुट्टी है, इसलिए डॉक्टर साहब घर पर इलाज कर रहे हैं। डॉ. आरके तिवारी झींक बिजुरी में पदस्थ हैं और आयुर्वेद के डॉक्टर हैं। चूंकि यहां पर एलोपैथिक में एक भी डाक्टर नहीं इसलिए वही इलाज करते हैं। हम डॉक्टर के पास पहुंचे तो उन्होंने बैठने के लिए कहा। ट्रैक शूट और हवाई चप्पल पहने डॉक्टर ने पूछा किस फार्मा कंपनी से आए हैं, हमने कहा कि हम फार्मा कंपनी से नहीं हैं, पत्रकार हैं। सकपकाए डॉक्टर साहब कुर्सी से खड़े हो गए। मरीजों से भरे कमरे में भी सन्नाटा! सबकुछ असहज। हालांकि कुछ सामान्य चर्चा के बाद हम वहां से निकले। सूरज अस्ताचल की ओर था और हमें दुर्गम रास्तों का अंदाजा भी था। जंगल से जल्द से जल्द निकलना चाह रहे थे। सूर्य अस्त होते-होते हम जंगल का रास्ता पूरा कर चुके थे। इस बार ग्रामीण रास्तों को छोड़कर हमने हाइवे की ओर कूच किया, जो थोड़ा लंबा था। हाइवे पर जब वाहन ने फर्राटा भरना शुरू किया तो दिमाग में भी विचारों का वेग तेज हो गया। समझ में आया कि आखिर ‘विकासÓ भी जानता है कि किसके पास रहना है और किसके पास नहीं।