काम मिलता नहीं, अब तो मजबूरी हो गई है, परंपरागत कारोबार से ही पाल रहे अपने परिवार का पेट
शहडोल. वह तोड़ती पत्थर, उसे देखा मैने इलाहाबाद के पथ पर…। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने एक महिला को इलाहाबाद में पत्थर तोड़ते हुए देखा था तो कविता लिखी थी। उसकी व्यथा, उसकी भूख, उसकी मजबूरी। बाणगंगा मेले में भी निराला की वह नायिका आज भी पत्थर तोड़ रही है। यकीं न हो तो आकर देख लीजिए।
चार घंटे तक पत्थर में छेनी हंथौड़ी चलाकर उसे तराशने वाले इन परिवारों के पास
रोजगार का कोई साधन नहीं हैं। इसे इनकी मजबूरी कहें या फिर पर परंपरागत कारोबार से लगाव। जो भी है दो वक्त की रोटी नसीब हो जाती है इसमें ही यह परिवार खुश रहता है। सुबह से शाम तक बच्चे से लेकर बूढ़े तक छेनी हंथौड़ी चलाते देखे जा सकते हैं। इन दिनो लगभग ८-१० परिवार शहडोल के बाणगंगा मेला मैदान में आया हुआ हैं। मेले का आयोजन १४ जनवरी से होना है लेकिन उसके एक सप्ताह पहले ही यह लोग यहां पहुंच गये हैं और मेले की तैयारी में जुटे हुये है। जिससे कि मेला प्रारंभ होने के पहले वह कुछ सेट बिक्री के लिये तैयार कर सकें। अलग-अलग स्थानो में टेन्ट लगाकार दुकान सजाकर बैठे यह कारीगरों के सर पर एक ही भूत सवार है वह है ज्यादा से ज्यादा पत्थरों को तरासकर सिल-लोढ़ा व चकरी का मूर्त-रूप देना। इसके सामने वह भूंख प्यास सब भूले
हुये हैं।
12 वर्ष से आ रहे मेले में सतना जिले से शहडोल बाणगंगा मेला मैदान में सिल-लोढ़ा व चकली का व्यापार करने आये राम बरण गोंड़ व उनसे जुड़े ९ अन्य परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी यही कारोबार करते चले आ रहे हैं। बाणगांगा मेले में वह लगभग १२ वर्ष से लगातार आ रहे हैं। मेला लगने के लगभग एक सप्ताह पहले वह यहां आ जाते हैं और मेला समाप्त होने के बाद तक यहां रुकते हैं। इसके अलावा भी वह अन्य जगहों के मेले में जाकर अपना कारोबार करते हैं।
मेहनत ज्यादा लाभ कमराम बरण की माने तो इस कारोबार में मेहनत ज्यादा और लाभ बहुत कम है। एक सिल-लोढ़ा बनाने के लिये 70-80 रुपये की लागत व ४-५ घंटे की मेहनत के बाद ज्यादा से ज्यादा 100-150 रुपये में ही बिकते हैं। राम बरण ने बताया कि वह पत्थर अपने साथ सतना से ही लेकर आते हैं। जिसे तोडऩे, तरासने का कार्य वह यहीं करते हैं। एक सिल-लोढ़ा व चकली बनाने में लगभग 4-5 घंटे का समय लगता है। यह कब बिकेंगे और कितने बिकेंगे इसकी कोई जिम्मेदारी नही है।