इतिहासकार और पुरातत्वविद् कैलाश पाराशर बताते हैं कि राजस्थान के इस त्योहार पर मेले की शुरुआत लगभग 400 साल पूर्व गौड़ राजाओं के समय हुई थी। तत्समय मेले का आयेाजन किले में होता था और गुरुमहल के नीचे की ओर स्थित बाजार में गणगौर की सवारियां रखी जाती थी, जहां राजा स्वयं आकर बैठते थे। बाद में सिंधिया रियासत के दौरान गणगौर की सवारियां किले के नीचे बैठने लगी और फिर यहां सूबात कचहरी(वर्तमान में भी यहीं) पर ये मेला आयोजित किए जाने लगा। सिंधिया रियासत के समय गणगौर मेले के दौरान सूबा साहब(कलेक्टर) बैठते थे। आजादी के बाद मेले का आयोजन स्थानीय समितियों के हाथों में आ गया। यही वजह है कि बीते 400 सालों से गणगौर मेला और गणगौर की सवारियां निकाले जाने की परंपरा चल रही है।
पाराशर कहते हैं कि पूर्व में राजा और सिंधिया रियासत द्वारा गणगौर की सवारियां निकाली जाती थी, लेकिन बाद में विभिन्न मोहल्लों द्वारा गणगौर निकाली जाती है। इसी के तहत भूरी पाड़ा, पचरंग पाड़ा, टोड़ी बाजार, चौपड़ आदि की गणगौर पहले दिन मोहल्लों में ही बैठती हैं और दूसरे व तीसरे दिन सवारी निकलती है। मेले में विभिन्न स्वांग भी आयोजित किए जाते हैं।