scriptश्योपुर में पलायन का दंश झेल रहे हजारों परिवार | Thousands of families with a strain of escape in Sheupur | Patrika News

श्योपुर में पलायन का दंश झेल रहे हजारों परिवार

locationश्योपुरPublished: Apr 24, 2019 08:47:25 pm

Submitted by:

jay singh gurjar

श्योपुर में पलायन का दंश झेल रहे हजारों परिवारजिले के आदिवासी विकासखंड कराहल से हर साल हजारों परिवार रोजगार और पानी के लिए कर जाते हैं पलायनसरकारी सिस्टम और जनप्रतिनिधियों ने नहीं बनाई कोई ठोस कार्य योजना, हर साल घर छोडऩा पड़ता घर-बार

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श्योपुर में पलायन का दंश झेल रहे हजारों परिवार

श्योपुर,
घर, बस्ती और गांव को छोड़कर दूर कहीं खुले आसमां तले बसेरा करने की मजबूरी और महीनों तक प्राकृतिक आपदाओं से जूझते हुए गुजर-बसर। बाद में अव्यवस्थित जीवनशैली और खान-पान के साथ जब वापिस लौटते हैं तो तमाम बीमारियों व विपदाओं से घिर जाते हैँ। कुछ ऐसी ही पीड़ा है पलायन करने वाले जिले के उन हजारों परिवारों की, जो रोजगार और पानी की तलाश में हर साल पलायन को मजबूर हैं।
हालांकि चुनावों में तमाम बड़े-बड़े वादे और राष्ट्रवाद के खोखले ढिंढोरे के साथ नेता जनता को लुभाने का प्रयास करते हैं, लेकिन जनता को मूलभूत सुविधाएं देने जैसे असली राष्ट्रवादी और वास्तविक मुद्दों पर कोई बात नहीं करता। इसी का परिणाम है कि श्योपुर जिले में गरीब मजदूरों और पशुपालकों का पलायन अब श्योपुर जिले की अनचाही पहचान बन गया है। यही वजह है कि कुपोषण के बाद पलायन का भी एक अमिट कलंक है, जो वर्षों से श्योपुर के माथे पर लगा हुआ है। आज भी हजारों परिवार जहां रेाजगार की तलाश में परिवार संग पलायन करने को मजबूर हैं, तो सैकड़ों परिवार अपने मवेशियों के लिए चारे-पानी की तलाश में घर-बार छोड़ जाते हैं। बावजूद इसके पलायन रोकने के लिए जनप्रतिनिधियों ने न तो कोई ठोस प्रयास किए और न ही सरकारों ने भी कोई ठोस कार्ययोजना बनाई।
चारे-पानी को एक हजार पशुपालकों की लंबी दौड़
आदिवासी विकासखंड कराहल में लगभग दो दर्जन गांव ऐसे हैं, जिनमें गुर्जर-मारवाड़ी परिवार निवास करते हैँ और इनकी आजीविका पशुपालन पर ही निर्भर है। लेकिन ग्रीष्मकाल में इन क्षेत्रों में चारे-पानी का संकट हो जाता है। लिहाजा चारे-पानी के अभाव में अपने पशुओं को बचाने ये पशुपालक परिवार मार्च माह में पलायन कर जाते हैं और पहली बारिश के बाद लौटने लगते हैं। क्षेत्र के ग्राम गोरस, कलमी, पिपरानी, डोब, चितारा, बुढ़ेरा, खेरा,डाबली, झरेर, सिमरोनिया, खाड़ी, खूंटका, पातालगढ़, कोटागढ़, रानीपुरा, राहरौन आदि सहित अन्य कई गांवों के लगभग एक हजार परिवार न केवल श्योपुर क्षेत्र के बड़ौदा और राजस्थान के इलाकों में जाते हैँ बल्कि उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के गंगा-जमुना नदी के किनारे वाले क्षेत्रों तक भी जाते हैं। यही वजह है कि इनके पीछे बस्तियां खाली पड़ जाती है, या केवल वृद्धजन घरों में दिखते हैं। हालांकि इस समस्या के समाधान के लिए ये पशुपालक हर दल और हर सरकार के समक्ष वर्षों से अपनी मांग रखते आ रहे हैं, लेकिन किसी ने नहीं सुना। हां, पानी के लिए के लिए क्षेत्र में छोटे छोटे स्टॉप डेम, चारे के लिए डिपो आदि के खोखले आश्वासन जरूर मिले हैं।
रोजगार के लिए 10 हजार परिवारों का पलायन
चारे-पानी के लिए जहां पशुपालक पलायन करते हैं, वहीं गंभीर समस्या है रोजगार के लिए पलायन। आदिवासी क्षेत्र कराहल और विजयपुर के ही लगभग 80 गांवों से हर साल फसल कटाई के लिए चेतुआ मजदूर के रूप में लगभग 10 हजार परिवार श्योपुर क्षेत्र के साथ ही राजस्थान की ओर पलायन करते हैं। हर साल फरवरी के अंत में इनका पलायन शुरू होता है और अप्रेल के दूसरे पखवाड़े में लौटने लगते हैं। हालांकि फसल कटाई के लिए होने वाला ये पलायन इन मजदूरों के लिए एक परंपरा सी बन गया है, लेकिन जब ये लौटते हैं तो इनके अधिकांश बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं, साथ ही अन्य बीमारियां बच्चों व मजदूरों को जकड़ लेती हैं। वहीं पलायन के चलते इनके गांव के गांव खाली नजर आते हैं। हालांकि जनप्रतिनिधि और नेता क्षेत्र में वनोपज आधारित किसी उद्योग धंधे की वकालत करते तो नजर आते हैं, लेकिन इस दिशा में कोई प्रयास करते नहीं दिखते। यही वजह है कि रोजगार की तलाश में इन चेतुआ मजदूरों के अलावा भी क्षेत्र के सैकड़ों आदिवासी परिवार और एकल युवा भी जयपुर, अजमेर, जेसलमेर अहमदाबाद, सूरत जैसे शहरों में मजदूरी करने को मजबूर हैं।
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