मोहर्रम इस्लामिक कैलेंडर के पहले महीने का नाम है। इसी महीने से इस्लाम का नया साल प्रारम्भ होता है। इस महीने की दस तारीख को रोज – ए- आशुरा कहा जाता है। मोहर्रम के महीने में इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मोहम्मद साहब के छोटे नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयायियों को शहीद कर दिया गया था। हजरत हुसैन इराक के शहर कर्बला में यजीद की फौज से लड़ते हुए शहीद हो गए थे। उन्होंने कहा कि छल, कपट, झूठ, जुआ, शराब जैसी चीजें इस्लाम में बताई गई हैं। हजरत मोहम्मद साहब ने इन्ही निर्देशों का पालन किया। इन्ही इस्लामिक सिद्धांतों पर अमल करने की हिदायत सभी मुसलमानों और अपने परिवार को दी थी।
ऐसे शुरू हुई थी जंग
इमाम जंग का इरादा नहीं रखते थे, क्योंकि उनके काफिले में 72 लोग ही शामिल थे। जिसमें छः माह का बेटा, उनकी बहन, बेटियां, पत्नी और छोटे छोटे बच्चे शामिल थे। तारीख एक मोहर्रम थी और गर्मी का वक्त था और सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना – पानी था वह खत्म हो चुका था। इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। सात से दस मोहर्रम तक इमाम हुसैन, उनके परिवार के लोग और अनुयायी भूखे प्यासे रहे और दस मोहर्रम को इमाम हुसैन की तरफ एक एक कर गए हुए शख्स ने यजीद की फौज से जंग की।
जब इमाम हुसैन के सारे साथी शहीद हो गए, तब असर की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वह खुद भी शहीद हो गए। इस जंग में इमाम हुसैन के एक बेटे जैनुल आबेदीन जिंदा बचे क्योंकि दस मोहर्रम को वह बीमार थे और बाद में उन्ही से मोहम्मद साहब की पीढ़ी चली। इस कुर्बानी की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। कर्बला का यह वाकया इस्लाम की हिफ़ाजत के लिए हजरत मोहम्मद साहब के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी है।