यह गांव अनुसूचित जाति, जनजाति बाहुल्य है। यहां के निवासी पहले त्योहारों और शादियों समेत अन्य आयोजनों में लोककलाओं की प्रस्तुति देते थे। वर्ष 2010 में कलाकार जिले की इंद्रवती नाट्य समिति के संपर्क में आए। समिति ने इन्हें बड़े मंचों पर प्रस्तुति के लिए तैयार किया। नतीजतन विलुप्त होती लोकलाओं को संरक्षित करने का सार्थक प्रयास अब सफल होता दिख रहा है, वहीं गांव की नई पीढ़ी जो पहले इन कलाओं से किनारा कर रही थी, वह अब इसमें रुचि दिखा रही है।
गुरुम बाजा-करमा ने दिलाई पहचान
बकवा गांव के आदिवासी घासी परिवार के कलाकारों द्वारा गुदुम बाजा औरकरमा की प्रस्तुति कई राज्यों में दी जा चुकी है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा वर्ष 2015 में दमन-दीव में आयोजित रंग महोत्सव में पहली बार प्रस्तुति के लिए बड़ा मंच दिया। अंडमान-निकोबार में वर्ष 2016 में आयोजित रंग महोत्सव में प्रस्तुति दी गई।
इन लोककलाओं का संरक्षण
बकवा गांव में सइला, घसिया करमा, गोंडी करमा, बैगा करमा, सुआ छपइया, अहिराई, अहिराई लाठी, गुदुम्ब बाजा, चमरौंही लोकनृत्यों संरक्षित करने में सफलता हासिल हुई है। इसी तरह टप्पा, झोइलया, जाता श्रमगीत के साथ ही कजरी, हिंदुली, चैती, बारहमासा ऋतुगीतों को भी संरक्षित किया गया है। यहां के कलाकार परब, फाग, भगत, खेल, मंत्र, लागा, ददरिया, दादरा समेत अन्य लोकगीतों में भी पारंगत हैं।