-उनके बड़े भाई बलसिंह शेखावत पाटोदा जागीर के ठाकुर थे।
-भूरसिंह के रोबीले व्यक्तित्व को देखकर अंग्रेजों ने उन्हें आउट आम्र्स रायफल्स में सीधे सूबेदार पद पर भर्ती कर लिया था।
-अचूक निशानेबाज तथा स्वाभिमानी भूरसिंह जल्द ही सभी भारतीय सिपाहियों के आदर्श बन गए।
-अंग्रेजों द्वारा भारतीय सिपाहियों के साथ किया जाने वाला दुव्र्यवहार भूरसिंह को बर्दाश्त नहीं होता था।
-इसी के चलते एक दिन उन्होंने अपने अंग्रेज अफसर की हत्या कर दी और वहां से फरार हो गए।
-वापस अपने गांव पाटोदा आकर उन्होंने सारी घटना की जानकारी बड़े भाई बलसिंह शेखावत को दी।
-ठाकुर बलसिंह भी अपने पूर्वजों डूंगरसिंह तथा जवाहरसिंह कीमौत का बदला लेना चाहते थे इसलिए वे भी भूरसिंह के साथ बागी जीवन जीने निकल गए।
-बागी होने के बाद दोनों भाइयों ने अमीरों एवं सेठ-साहूकारों को लूटना आरम्भ कर दिया।
-लूटा हुआ धन वे गरीबों को देते थे। दोनों भाइयों की जोड़ी बलजी-भूरजी के नाम से चर्चित होने लगी।
बलजी-भूरजी ने जोधपुर रियासत में डाले डाके
-बलजी-भूरजी ने जोधपुर रियासत में तो डाके डालने की श्रृंखला ही बना डाली। बलजी जहां धैर्यवान तथा मर्यादित स्वभाव के थे वहीं भूरजी तेज-तर्रार तथा गुस्सैल स्वभाव के थे।
-भूरजी के बारे में कहा जाता है कि जब उन्हें कुछ खास करने की जिद चढ़ती तो वे उस काम को पूरा करके ही दम लेते थे। चूंकि भूरजी अंग्रेजी सेना के बागी थे इसलिए अंग्रेज अफसर भी उनके पीछ़े पड़े हुए थे।
-अंग्रेजों को सबक सिखाने के लिए एक दिन भूरजी ने आम्र्स रायफल्स के नसीराबाद स्थित मुख्यालय से फिरंगी झण्डा उतारकर लाने का ऐलान कर दिया।
-भूरजी अंग्रेज अफसर की ड्रेस पहनकर उनके मुख्यालय पहुंच गए और उनके झण्डे को उतार लिया और वहां मौजूद सिपाहियों का सैल्यूट स्वीकार कर वापस बड़े आराम से आ गए।
-अंग्रेजों को जब तक माजरा समझ में आता तब तक भूरजी उनकी पहुंच से बहुत दूर निकल चुके थे। बाद में इसी झण्डे को भूरजी अपने ऊंट की पूंछ से बांधकर रखने लगे।
लोग राजा-महाराजा की तरह बलजी-भूरजी का स्वागत
लूट से मिले धन को वे गरीबों में बांट देते और हर जरूरतमन्द व असहाय की सहायता के लिए हमेशा तैयार रहते थे। इस कारण वे जहां भी जाते वहां के लोग उनका स्वागत राजा-महाराजा की तरह करते। दोनों भाइयों की छवि देशी रॉबिनहुड के रूप में चारों ओर फैल गई। स्वच्छन्द घूमते बलजी-भूरजी अंग्रेजों की नाक में हमेशा दम करके रखते। लेकिन, कहते है समय हमेशा एक सा नहीं रहता।
एक बार बलजी-भूरजी अपनी टोली के साथ डीडवाना होकर अजमेर जा रहे थे। रास्ते में उनकी मुठभेड़ जोधपुर रियासत के गुलाबसिंह नामक अधिकारी से हो गई जिसमें गुलाबसिंह की मृत्यु हो गई। कहा जाता है कि गुलाबसिंह की जनता में अच्छी छवि थी जिसके चलते बलजी-भूरजी के सामने कठिनाइयां आने लगी।
जोधपुर रियासत ने अपने जांबाज अधिकारी को खोने के बाद बलजी-भूरजी को पकडऩे का जिम्मा बख्तावर सिंह को सौंपा, जिनके बारे में कहा जाता था कि वह अधिकारी अपना काम पूरा करने से पहले घर नहीं लौटता था। बलजी-भूरजी को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते एक दिन बख्तावर सिंह की उनसे मुठभेड़ हो गई।
बख्तावर सिंह के पास 300 से ज्यादा सिपाही थे जबकि बलजी-भूरजी की टोली में केवल 15 लोग थे। बख्तावर सिंह खुद भी बलजी-भूरजी से प्रभावित थे, इसलिए चाहते थे कि वे दोनों आत्मसमर्पण कर देवें लेकिन ऐसा संभव नहीं हुआ। मुठभेड़ में बलजी-भूरजी की मृत्यु हो गई। इसकी सूचना जोधपुर रियासत के साथ-साथ अंग्रेजों के पास भी पहुंची।
बलजी-भूरजी का सिर काटकर ले जाना चाहते थे अंग्रेज
अंग्रेज अधिकारी बलजी-भूरजी का सिर काटकर अपने साथ ले जाना चाहते थे लेकिन बख्तावर सिंह ने तथा आसपास के अन्य जागीरदारों के विरोध के कारण ऐसा संभव नहीं हुआ। कहा जाता है कि बलजी-भूरजी की मौत से बख्तावर सिंह को ग्लानि हुई और भूखा-प्यासा ही उनके शवों के पास चार दिनों तक बैठा रहा।
बाद में दोंनो का ससम्मान अंतिम संस्कार करवाकर ही बख्तावर सिंह अपने घर लौटा। बलजी-भूरजी की यह कहानी इतिहास के पन्नों में कहीं खो सी गई हंै लेकिन आज भी पुराने लोग उन्हें याद करते हैं। उनकी स्मृतिस्थल पर आज भी लोग जाकर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।