हाथ कटा…हार नहीं मानी… पैरों को ढाल बना लाडो खेल में पहुंची आस्ट्रेलिया
महज दो साल की उम्र में करंट लगना और इसके बाद एक हाथ कट जाना। दिव्यांग होने के बाद दुनिया के ताने सुनकर हिम्मत जुटाना और इसके बाद बगैर हाथ के पैरों को ढाल बनाना। दिन-रात ताइक्वांडो का अभ्यास करना और इसके बलबूते पर खेल में आस्ट्रेलिया की इंटरनेशनल चैंपियनशिप में चयन हो जाना।
सीकर. महज दो साल की उम्र में करंट लगना और इसके बाद एक हाथ कट जाना। दिव्यांग होने के बाद दुनिया के ताने सुनकर हिम्मत जुटाना और इसके बाद बगैर हाथ के पैरों को ढाल बनाना। दिन-रात ताइक्वांडो का अभ्यास करना और इसके बलबूते पर खेल में आस्ट्रेलिया की इंटरनेशनल चैंपियनशिप में चयन हो जाना। जी हां, पढऩे में यह भले ही किसी हिंदी फिल्म की पटकथा लग रही हो। लेकिन, हकीकत में यह करिश्मा कर दिखाया है मालियों की ढाणी में रहने वाली दिव्यांग लाडो ललिता सैनी ने। जिसने अपना एक हाथ शरीर से गंवाने के बाद अपने पैरों पर विश्वास जमाया और कुछ कर गुजरने के लिए भूखी-प्यारी रहकर मार्शल आर्ट ताइक्वाडो की तैयारी की। दो साल की कड़ी मेहनत के बाद अब इस मजदूर की बेटी का नंबर 25 मई से आस्ट्रेलिया में होने वाली पैरा चैंपियनशिप में हुआ है। जिसको लेकर उसके हौंसलों को तो नई उड़ान मिली ही है। लेकिन, परिवार व गांव में भी जश्न का माहौल बना हुआ है कि उनकी लाडली लाडो दिव्यांगता की बेडियां तोडकऱ विदेशी धरती पर अपना हुनर दिखाने पहुंचेगी और काबलियत के बल पर अपने मजदूर पिता सहित गांव तथा पूरे देश का नाम रोशन करेगी।
पिता खोदते हैं कुई
ललिता के पिता चौथमल सेफ्टी टैंक की कुई खोदकर अपने परिवार का पेट पाल रहा है। मां मंजू देवी का कहना है कि बेटी की जिद के आगे वे लोग भी आखिर में हार गए थे। पेट काटकर उसके खेल की तैयारी में मजदूरी का पैसा खर्च करते रहे थे। लेकिन, अब सकून है कि उनकी निशक्त बेटी आगे तक जाएगी और मेडल जीतकर लाएगी।
शिष्या के साथ गुरु का चयन
आस्ट्रेलिया में 25 से 29 मई तक होने वाली अंतराष्ट्रीय चैंपियनशिप में ललिता के साथ उसको अभ्यास कराने वाले गुरु महेश नेहरा का भी चयन हुआ है। दोनों का पासपोर्ट तैयार है। लेकिन, डेढ़ से दो लाख खर्च होने वाले इन रुपयों की व्यवस्था के लिए ललिता व उसका निर्धन परिवार जरूर पसोपेश की स्थिति में है।
अरमानों के लगे पंख
बतौर ललिता दिन में वह पांच घंटे ताइक्वांडो का जमकर अभ्यास करती है। इसके बाद शाम को दौड़ की तैयारी अलग से करती है। उसका मानना है कि मन के जीते जीत है और मन के हारे हार। क्योंकि बचपन में एक हाथ कटने के बाद जब कानों से उसने सुना कि वह बेकार हो गई है और जीवन में कभी कुछ कर नहीं पाएगी तो उसने इरादों को मजबूत किया और मुकाम पाकर उसके अरमानों को भी मानो नए पंख लग गए हैं।