साया
देखा है मैंने
साया आदमी का!
नहीं रहा वो आदमी
जो सबको अपना मानता
सुख-दुख बांटता और
हर पल रहता तैयार
सबकी मदद करने को!
मानवता की जलती
मशाल लिए घूमता था
इस गली से उस गली
गांव-गांव, शहर-शहर!
सबको बांटता उजाले
खुशियां और उम्मीदें
बिना भेदभाव के
बिना हिसाब के
सबको पर्याप्त….
सब संतुष्ट…..
क्योंकि विश्वास था
न छल था न कपट!
तभी तो युग भी
सतयुग हुआ!
सुख में साथ सब
दुःख में हर मुख से दुआ!
अकल्पनीय है आज
मगर सचमुच था आदमी!
ये निर्विकार!भाव शून्य!
पुतला है!? नहीं है आदमी!
हां कभी-कभी
मौज जहां-तहां
नजर आता है
कोई साया आदमी का!
रचना: विमला महरिया “मौज”
सीकर, राजस्थान
सीकर, राजस्थान