कविता: जूता और टोपी
सुनो!
अन्तर्मन की व्यथा

सुनो!
अन्तर्मन की व्यथा
जूता ``दादा`` की कथा
इसी की कुर्बानी
कलम- वाणी
टोपी की कथनी
कवि की जुबानी
जूता सही
टोपी सही
सही उपयोग नही
कीमत जूते की नही
टोपी की लगाते हैं
अरे! पद-- मदान्ध
शान टोपी नही
जूते बढाते हैं
लेखक की लेखनी में
लोकोक्ति मुहावरा बन
चारों तरफ करता है भ्रमण
उछलकूद करता है
कितना दम्भ भरता है
नेता की सभा में
बन जाते हो कभी
गले का हार- गले का हार
जब तुम अपना काम करते हो
सपने उनके हो जाते हैं
तार- तार. तार- तार
पैरों पर गिरते हो
फिर !
सिर पर पडते हो
ठिकाना एक नही
दो राहो पर चलने का
काम नेक नही
जूता की मांड" में!
टोपी की आड़ में
हर अबला को ये
इसकी जात समझ लेते हैं
तनुजा- मातृ- भगिनी हैं सभी
निरा- खल!
नासमझ लगते हैं
तेरी ओट में
भूल वश समझ बैठे हैं
मुझे अपनी समर्थता
पर!
कभी न पहचान सके
मेरी ये सत्यता
और तेरी ही बाट में
बन जाता है बगुला- भगत"
मामा- मौसेरा- भाई बनकर
करते सदा मँगला- जुगत
देखकर कर्म भक्ति इनकी
आँखे लाल होती है
हर सदी में मेरी हालत
बेहाल होती है
अपने को बदलने के लिए
उछलता हूँ, गिरता हूँ,
अन्त !
अपने मित्रों का संग पाकर
गले का हार बन जाता हूँ
कवि की जुबानी तुच्छ ही हो:
"दादा" पर कुछ भी हो
तेरे बिना सभी अपंग हैं
देवासुर - मानव सभी संग हैं
तू है तो है महत्व इसका
तू नही तो नहीं अस्तिव इसका
टोपी बिन जन करते हैं गुजर- बसर
बिना जूता के खेल- दुसर दूभर
तू सच में
पूजनीय है
वंदनीय है
वैभवपूर्ण है
उछलकर गिरने का तेरा ये काम
निन्दापूर्ण है
गिर कर उठना उठकर गिरना
बुरी बात नही है
पर, गिरकर रूक जाना
अच्छी बात नही है
गिरकर उठना
यही तो रीत है
सतत् संघर्ष की
जीत ही तो जीत है
हीरालाल कंचनपुर, अध्यापक
रा. उ. मा. वि. जोरावर नगर
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