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वर्ल्ड पोस्ट डे: 45 किलोमीटर रोजाना पैदल चलकर गांवों में सात- सात दिन बांटते थे डाक

locationसीकरPublished: Oct 09, 2021 09:46:51 am

Submitted by:

Sachin

सीकर. सोशल मीडिया के दौर में आज हर कोई ‘पोस्टमैन’ है। लेकिन, मोबाइल, टेलिफोन व इंटरनेट से रहित एक दौर ऐसा भी था जब अपनों की खैर- खबर का जरिया केवल खत थे।

वर्ल्ड पोस्ट डे: 45 किलोमीटर रोजाना पैदल चलकर गांवों में सात- सात दिन बांटते थे डाक

वर्ल्ड पोस्ट डे: 45 किलोमीटर रोजाना पैदल चलकर गांवों में सात- सात दिन बांटते थे डाक

सीकर. सोशल मीडिया के दौर में आज हर कोई ‘पोस्टमैन’ है। लेकिन, मोबाइल, टेलिफोन व इंटरनेट से रहित एक दौर ऐसा भी था जब अपनों की खैर- खबर का जरिया केवल खत थे। जिन्हें पहुंचाने का जिम्मा संभालने वाले ‘डाक बाबू’ किसी देवदूत से कम नहीं थे। मीलों पैदल चलकर ये न केवल डाक पहुंचाते, बल्कि परिजनों को पढ़कर भी सुनाते। शेखपुरा मोहल्ला निवासी रघुनाथप्रसाद सैनी भी इसी दौर के डाकिया थे। जो एक दिन में 45 किलोमीटर तक पैदल चलकर शहर से लेकर गांव- ढाणी तक डाक पहुंचातेे। 1946 से 1986 तक डाक विभाग में सेवा दे चुके 96 वर्षीय सैनी बताते हैं कि गांवों की डाक बांटने में उन्हें सात- सात दिन का समय लगता था। जहां वे सुबह से लेकर रात आठ बजे तक डाक व मनी ऑर्डर बांटते थे। बकौल सैनी उस समय पोस्टमैन का सम्मान सबसे बढ़कर होता था। आवभगत में पूरा गांव उमड़ पड़ता था।

तांगे से आती थी डाक, मोहल्ले के लोग बांट देते थे डाक
रघुनाथ प्रसाद बताते हैं कि पांचवी पास करते ही पड़ौसी के कहने पर उन्हें डाक विभाग में 22 रुपये 50 पैसे में नौकरी मिली। जिसमें पांच- पांच पैसे की वेतन वृद्धि होती थी। इस दौर में डाक व मनीआर्डर सबल धाबाई के तांगे में आते। जिनका ढेर इतना होता कि 32 पोस्ट मैन होने पर भी एक पोस्टमैन के हिस्से 500 से 600 डाक व मनी ऑर्डर आते। शहर में पोस्ट ऑफिस के अलावा जाट बाजार में बडग़ट्टे पर उनका ढेर लगाकर बैठ जाते थे। जहां से अलग- अलग मोहल्ले के लोग आते और पूरे मोहल्ले की डाक ले जाकर खुद ही बांटे आते।

45 किलोमीटर पैदल चलकर बांटते डाक, पढ़कर भी सुनाते
सैनी के अनुसार गांव में डाक बांटना इस समय काफी मुश्किल था। रास्ते नहीं होने पर गांवों में साइकिल भी नहीं चलती थी। ऐसे में जिलेभर के गांवों में पैदल ही डाक बांटनी पड़ती। इसके लिए सात दिन की डाक एक साथ ले जाते और रात आठ- आठ बजे तक उन्हें बांटते। साक्षरता की कमी की वजह से लोग उन्हीं से पत्र भी पढ़वाते। जिसमें खुशी का समाचार सुन लोग झूमने लगते तो दुख की खबर पर आंसू बहाने लगते। बकौल सैनी डाक विभाग की ओर से प्रतिदिन छह कोस डाक वितरण का नियम था। लेकिन, वे 15 कोस यानी 45 किलोमीटर तक भी पैदल चलकर डाक बंाट आते थे।

11 व 21 रुपए के आते मनी ऑर्डर, 1 पैसे का पोस्टकार्ड
सैनी के अनुसार उस दौर में मनी ऑर्डर का खूब प्रचलन था। बाहर से लोग खत के साथ खूब मनी ऑर्डर भेजते। जो 5,11 व 21 रुपए के होते। सबसे बड़ा मनी ऑर्डर 51 रुपए का होता। एक पोस्टमैन को दो हजार से ज्यादा के मनी ऑर्डर नहीं दिए जाते थे। विश्वास कायम होने की वजह से उन्हें जरुर पांच हजार रुपए तक के मनी ऑर्डर दिए जाते थे। इस समय पोस्टकार्ड की दर एक पैसे व लिफाफे की दर छह पैसे थी।

पोशाक देखते ही मिल जाता रास्ता, खूब होता सम्मान
परिजनों के सुख- दुख का संदेश व मनी ऑर्डर की राशि लेकर पहुंचने वाले पोस्टमैन का उस समय खूब सम्मान होता। बकौल सैनी गांव में कोई भी ऊंट, घोड़ा या बैल गाड़ी वाला देखते ही उन्हें अपने पास बिठा लेता था। रास्ते में दूसरी गाड़ी मिलती तो वह भी डाकिये की पोशाक देखते ही उन्हें रास्ता दे देता। जगह- जगह लोग उन्हें लोग घेर लेते और डाक की जानकारी पाने के साथ खूब आवभगत करते। रात के रुकने व खाने-पीने की व्यवस्था सहित लोग उन्हें खूब उपहार भी देते।

अब हर शख्स पोस्टमैन, विभाग में रह गए आधे
संचार की बढ़ती तकनीक से व्हाट्स एप, फेसबुक व ईमेल सरीखे सोशल मीडिया पर संदेश पोस्ट कर अब हर शख्स पोस्टमैन बन गया है। वीडियो कॉलिंग ने लोगों की दूरियां व नेट बेंकिंग ने मनी ऑर्डर की आवश्यकता खत्म कर दी है। पोस्ट ऑफिस में भी तकनीकी काम बढ़ गया है। बदले हुए जमाने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि रघुनाथ प्रसाद सैनी की सेवानिवृत्ति के समय सीकर शहर के लिए 32 पोस्टमैन थे, जिनके पद अब मुख्य पोस्ट ऑफिस के मुताबिक 16 रह गए हैं। जिनमें भी चार पद खाली चल रहे हैं।

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