अधिकारियों के मुताबिक यह केंद्र देश में अपनी तरह का पहला अकादमिक व उद्योग समझौता है जो कोयले की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए कोयला प्रौद्योगिकी पर अनुसंधान करने के लिए अत्याधुनिक सुविधा से लैस है और कोयले की गुणवत्ता और ग्रेड का निर्धारण भी करेगा।
अधिकारियों के मुताबिक सतत खनन के साथ स्वच्छ कोयले की आवश्यकता और खनन के कार्बन फुटप्रिंट को कम करने को वैश्विक और राष्ट्रीय अनुसंधान विषय के रूप में पहचाना गया है। इस विषय को ध्यान में रखते हुए कोयला गुणवत्ता प्रबंधन और उपयोग केंद्र की कल्पना की गई थी।
आइआइटी बीएचयू और एनसीएल के इस वैज्ञानिक और सामूहिक प्रयासों से कोयला उपभोक्ताओं को एक स्थान पर सस्ती, कारगर और स्वच्छ कोयला की आपूर्ति हो सकेगी। बीएचयू में इस केंद्र की स्थापना का उद्देश्य कोयला उत्पादन और कोयला उपभोग क्षेत्रों के सहयोग से अधिक से अधिक अनुसंधान और मैनपॉवर स्किल को बढ़ाना है।
गौरतलब है कि एनसीएल के साथ एमओयू के माध्यम से आइआइटी बीएचयू पहले ही संयुक्त पीएचडी कार्यक्रमों आरंभ कर चुका है जहां प्रयोगशाला सुविधा, खदान, फील्ड डेटा का उपयोग कोयला खनन प्रौद्योगिकी और पर्यावरण के अनुकूल खनन के साथ अधिक तकनीकी और आर्थिक रूप व्यावहारिक बनाने के लिए किया जाएगा।
उच्च तकनीकी शिक्षा एवं विकास समिति के अध्यक्ष एसके गौतम ने समझौते को समय की आवश्यकता बताते हुए कहा कि कोयला मंत्रालय संसदीय सलाहकार समिति बैठक में सांसद सोनभद्र पकौड़ी लाल ने एनसीएल व आइआइटी बीएचयू मिलकर अनुसंधान के लिए कार्य करने के बावत लिखित सुझाव रखा था।
उन्होंने कहा कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा गठित टीम के सिंगरौली दौरे पर भी कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए आइआइटी बीएचयू का एक शोध केंद्र एनसीएल में खोले जाने का सुझाव दिया है। उन्होंने कहा कि कोयले में कार्बन की मात्रा उसकी गुणवत्ता निर्धारित करती है।
जब कोयला विद्युत उत्पादन के लिए जलाया जाता है तो राख को छोड़कर कोयले का जो अंश बचता है या जलता है उसे कार्बन कहते हैं। जितना कोयला जलता है उसका चार गुना कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में घुलता है जो पृथ्वी का ताप बढ़ाकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है। वहीं बचा अंश राख के साथ मिलकर मृदा एवं जल प्रदूषण की स्थिति पैदा करते हैं। निश्चित ही यह शोध समझौता कार्बन उत्सर्जन कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण शुरुआत है।