scriptसोनभद्र नरसंहार: आदिवासियों को विरासत में मिला है जमीनी विवाद | 70 Percent Land Disputed in Sonbhadra | Patrika News

सोनभद्र नरसंहार: आदिवासियों को विरासत में मिला है जमीनी विवाद

locationसोनभद्रPublished: Jul 22, 2019 12:31:08 pm

सोनभद्र के 70 फीसदी गांवों में है जमीनी विवाद।

Sonbhadra Killing

सोनभद्र हत्याकांड

सोनभद्र. तीन दिन पहले सोनभद्र के उम्भा गांव ने जो हैवानियत और मौत का नंगा नाच देखा उससे पूरे देश की रूह कांप गयी। जमीन पर कब्जे के लिये 10 लोग बेरहमी कत्ल कर दिये गए। जो नहीं मरे वो अधमरे होकर जिंदगी और मौत के बीच में झूलते रहे। तरक्की की धुंधली उम्मीद पाले विकास से कोसें दूर उम्भा गांव के आदिवासियों को गरीबी और पिछड़ेपन के साथ जमीन का ये विवाद भी विरासत में मिला है। ये कहानी सिर्फ उम्भा की नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर सोनभद्र जिले के ज्यादातर इलाकों की है। यहां के 70 फीसद गांवों में जमीनी विवाद हैं। बरसात आते ही ये विवाद संघर्ष का रूप ले लेते हैं।
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सियासी रहनुमाओं ने भी कभी इस बात की कोशिश नहीं किया की जिंदगी की जद्दोजेहद से जूझ रहे इन आदिवासियों के विवाद सुलझ जाएं, बल्कि उनकी अनदेखी और स्वार्थ के चलते ये विवाद और ज्यादा बढ़ते रहे। नतीजा उम्भा जैसे नरसंहार के रूप में सामने है। सोनभद्र और जमीनी विवाद का पुराना नाता है। यहां सैकड़ों गांवों में जमीनों को लेकर वन विभाग और आदिवासियों का विवाद है। कई बार इन्हीं जमीनों पर वन विभाग से लड़ते-लड़ते विवाद में कोई तीसरा शामिल हो जाता है और फिर चलती है कब्जे की जंग।
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सोनभद्र में में ऐसे मामलों की कोई कमी नहीं, जिनमें आदिवासियों के कब्जे वाली जमीन पर नाम किसी और का है। सदियों से खेती भले ही आदिवासी कर रहे हों, लेकिन उनकी जमीनों पर कानूनी दावा किसी और का है। इसे लेकर विवाद अक्सर संघर्ष का रूप लेता है। कुम्भा का नरसंहार भी इसी तरह के विवाद की बानगी भर है। विवाद सुलझाने की एक नाकाम कोशिश सरकार की ओर से भी हुई। सरकार ने माहेश्वरी प्रसाद कमेटी गठित की, जिसकी रिपोर्ट क आधार पर 1986 में सुप्रीम कोर्ट ने सर्वे सेटलमेंट का गठन किया। पर यह सेटलमेंट भी सोनभद्र को विरासत में मिले जमीनी विवाद का हल साबित नहीं हो सकीं।
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2006 में आदिवासियों के लिये वन अधिकार कानून लाया गया, मकसद था कि आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीनों पर मालिकाना हक मिल सके। 65536 आदिवासियों की ओर से दावा भी किया गया, लेकिन इनमें से महज 12020 दावों को ही आधे-अधूरे तरीके से माना गया। जबकि, 53506 दावों को बिना सुनवाई ही पूरी तरह खारिज कर दिया गया। आदिवासी कहते हैं कि शासन-प्रशासन उन्हें उनकी ही जमीन पर मालिकाना हक देने के मूड में नहीं, जबकि वन विभाग के अपने दावे हैं।
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अकेले सोनभद्र के दुद्धी ब्लॉक के नगवां गांव को ही लें तो वन विभाग दावा के मुताबिक गांव की 90 फीसद जमीन जंगल की है। वन अधिकार कानून के अन्तर्गत अपनी जमीन के लिये 373 आदिवासियों ने दावा किया, लेकिन मालिकाना हक महज 19 को मिला, वो भी आधा-अधूरा। नगवां गांव के हरिकिशन की मानें तो उन्होंने छह बीघा जमीन पर दावा किया, लेकिन उन्हें महज पांच कट्ठा जमीन का ही पट्टा दिया गया। कुसम्हा गांव की भी 60 प्रतिशत जमीन वन विभाग के दावे के अनुसार जंगल की है। गांव के 497 आदिवासियों ने अपनी जमीन का मालिकाना हक पाने के लिये सरकार के सामने दावा किया था। लेकिन सिर्फ 65 आदिवासियों को उनके दावे की 20 प्रतिशत से भी कम जमीन पर आधा-अधूरा मालिकाना हक दिया गया। इसी तरह रनटोला गांव की आधे से अधिक जमीन को वन विभाग जंगल की जमीन बताता है। इस गांव से दावा करने वाले 192 आदिवासियों में से महज 27 के दावों को ही सही माना गया। इतना ही नहीं इन 27 लोगों ने जितनी जमीन पर दावा किया था उसकी 15 फीसदी जमीन भी उन्हें नहीं दी गयी।
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सियासी रहनुमा, सरकारें और प्रशासन की लापरवाही और अनदेखी के चलते अब यह विवाद इतना बढ़ गए हैं कि कब बड़ा संघर्ष का रूप ले लें, किसी को पता नहीं। कुम्भा की घटना इन संघर्षों की बानगी भर है, अगर अब भी नहीं चेता गया तो इस तरह की घटनाओं को रोक पाना मुमकिन नहीं होगा।
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