scriptप्रकृति की गोद में बसा शहर, फिर भी लोग बीमार-बीमार से क्यों हैं? | City is in the lap of nature, yet why people are sick? | Patrika News

प्रकृति की गोद में बसा शहर, फिर भी लोग बीमार-बीमार से क्यों हैं?

locationजबलपुरPublished: Feb 23, 2019 08:51:34 pm

Submitted by:

shyam bihari

सीवर लाइन के बुरे हाल, मच्छरों की भरमार

सीवर लाइन के बुरे हाल, मच्छरों की भरमार

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जबलपुर। मदन महल की हरी-भरी पहाड़ी की छांव में बसाहट। तालाबों का सान्निध्य। आस-पास जंगल की हरियाली। खेतों का ताना-बाना। सबसे बड़ी बात मां नर्मदा के किनारे बसा शहर। जबलपुर शहर अभी भी बाकी शहरों की तरह कॉन्क्रीट का जंगल नहीं बना है। कुछ बाजारों को छोड़ दिया जाए, तो हर घर में कोई न कोई पेड़ दिख जाता है। एक तरह से अभी शहर प्रकृति के बेहद करीब है। शहर के लोगों की दिनचर्या भी महानगरीय नहीं हुई है। ज्यादातर लोग समय से सोते हैं। सुबह जल्दी उठ भी जाते हैं। मॉर्निंग वॉक की परम्परा गजब की है यहां। नर्मदा तट पर जाना तो यहां की दिनचर्या है। हर गली-मोहल्ले में जिम हैं। अखाड़े भी कई चल रहे हैं। ओशो का ध्यान केंद्र है। ग्वारीघाट में मठ-मंदिरों में पूजा-अर्चना होती है। इसके बाद भी एक कड़वी सच्चाई इस शहर के साथ चलती है। सीजन कोई भी हो, यहां बीमारों की कतार अस्पतालों में हमेशा लगी रहती है। 10 रुपए फीस लेने वाले डॉक्टर के यहां लाइन दिखेगी, तो पांच सौ रुपए फीस वाला डॉक्टर भी 24 घंटे बिजी रहता है। मेडिकल कॉलेज अस्पताल में साल के 365 दिन मेला लगा रहता है। बाकी के सरकारी अस्पतालों में भी तिल रखने की जगह नहीं रहती। आखिर इतने हरे-भरे, पानीदार और नदी के किनारे बसे शहर में बीामारियां आती कहां से हैं? ताज्जुब वाली बात है कि बीमार होने वाले सवाल का जवाब हर किसी के पास है। शहर में जितनी भी कॉलोनियां बनीं, सब बेतरतीब। सीवर लाइन बिछनी शुरू हुई तो, बिछती ही जा रही है। ठेका कंपनियां बदल रही हैं। नया ठेकेदार पुरानी सीवर लाइन का नक्शा ही पता नहीं कर पाता। वह नए सिरे गड्ढे करता है। सड़कों का कबाड़ा करता है। कुछ दिन बाद उसके होश पाख्ता हो जाते हैं। जितना पैसा ले पाता है, उतना लेकर भाग जाता है। हालत यह है कि पूरा शहर गटर के पानी पर ‘तैरनेÓ की स्थिति में है। शहर में चट्टानें हैं। इसलिए पानी सीमित मात्रा में ही धरातल में जा पाता है। गटर का पानी भला और कितना सड़ेगा। यह पानी भूगर्भीय जल में मिल रहा है। बोरिंग का पानी पीने वाला एक्वागार्ड नहीं लगवा पा रहा है, तो पानी पीकर बीमार होगा। गटर के पानी ने ही मच्छरों को अपना साम्राज्य बसाने का मौका दिया है। बीते पांच से सात साल में पूरे साल मच्छर डंक मारते रहते हैं। गर्मी में इंसानों का खून भले सूख, जाए। मच्छरों का बाल नहीं बांका होता। हाड़ कंपा देने वाली ठंड में भी यहां के मच्छर शेर की दहाड़ते रहते हैं। इससे भी चिंता की बात यह है कि शहर का कोई भी जिम्मेदार इसे लेकर गम्भीर नहीं है। पक्ष हो विपक्ष, सब बेफिकर हैं। यह शहर ऐसा है, जहां लंगड़ा बुखार पैदा होता है। लंगड़ा होने के बावजूद बीते सीजन में इतनी तेजी से दौड़ा कि हाहाकार मच गया। लोग बीमार हो रहे हैं। डॉक्टरों की मजे है। नेताओं के पास मुददा है। लेकिन, करना कुछ नहीं है। आमजन प्रशासन को कोसते हैं। फिर इलाज कराने चले जाते हैं। सबका क्रम चल रहा है। सिर्फ समस्या का निराकरण नहीं हो रहा है।

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