उच्चतम न्यायालय के इसी आदेश की आड़ में राज्य सरकार ने इंटरनेट बंद करने का फैसला करने का अधिकार संभागीय आयुक्त को सौंप दिया। उच्चतम न्यायालय ने लोक सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए विशेष कारण होने पर इंटरनेट बंद करने की छूट दी, लेकिन उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के जनता के साथ खड़े होने के बावजूद सात दिन में 3 बार राज्य पर डिजिटल कफ्र्यू थोप दिया गया। ऐसा करके सरकार ने केवल आमजन को परेशान ही नहीं किया बल्कि उच्च न्यायालय से दिए गए शपथ पत्र से पीछे हट गई। यह नेटबंदी उच्चतम न्यायालय की भावना का भी तिरस्कार है।
अब सवाल यह उठता है कि हम किस युग में जी रहे हैं। आज हर जिंदगी का पूरा ताना-बाना इंटरनेट के इर्द-गिर्द बुना है। ऐसे में डिजिटल कफ्र्यू आम आदमी के जरूरी कामकाज ही नहीं रोकता बल्कि त्योहार के मौके पर व्यापार को भी ठप कर देता है। इंडियन टेलीग्राफ एक्ट 1885 में भी एकदम स्पष्ट है कि लोक सुरक्षा के हित में ही इंटरनेट सेवा को बंद किया जा सकता है। इसके बाद भी जब मन चाहा तब डिजिटल कफ्र्यू, आखिर क्यों? जवाब है, अपनी नाकामी पर पर्दा डालना।
दरअसल सरकार तमाम प्रयास के बावजूद प्रतियोगी परीक्षा में न तो पर्चा आउट होने से बचा सकी और न ही नकल रोक सकी। क्योंकि यह पूरा गिरोह तो सिस्टम तक में शामिल है। ऐसे में सरकार ने पूरा ठीकरा फोड़ दिया इंटरनेट पर। मतलब इंटरनेट नहीं होगा तो न तो पर्चा आउट होगा और न ही नकल होगी। हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ। इंटरनेट बंद होने के बावजूद नकल हुई। बतौर साक्ष्य गिरोह पकड़े भी गए। मतलब इंटरनेट बंद करने का नतीजा शून्य निकला।
सवाल उठते हैं कि आखिर इतनी दुश्वारियां होते हुए भी सरकार बार-बार इंटरनेट सेवाएं बंद क्यों करती है? क्या इस बात का आकलन नहीं होता कि इंटरनेट सेवाएं बंद हो जाने पर कितना नुकसान होता है? क्या इंटरनेट सेवाएं नियम-कायदों और कानूनी प्रावधानों की पालना करते हुए बंद की गईं? इंटरनेट शटडाउन के लिए जो तर्क दिए गए क्या उन उद्देश्यों में सफलता मिली? जब बार-बार सरकार को मुंह की खानी पड़ रही है तो नेट शटडाउन की बजाए नकल रोकने का कोई अन्य विकल्प क्यों नहीं आजमाया जाता है?
सभी तरह के कारोबार अब इंटरनेट पर निर्भर हैं। इंटरनेट बुनियादी जरूरत है। सरकारी हो या गैरसरकारी कारोबार, बैंक हों या अन्य वित्तीय संस्थान, शिक्षण संस्थान हों या चिकित्सा सुविधा… सभी इंटरनेट सेवा बंद होने से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। ऑनलाइन ट्रांजेक्शन, नेट बैंकिंग पर काम-काज करने वाले लाखों लोग परेशान होते हैं। ऐसे में एक दिन का शटडाउन भी करोड़ों का नुकसान देता है।
आखिर इस नुकसान का जिम्मेदार कौन है? किसी भी परीक्षा में जिले के अधिकारी के माध्यम से इंटरनेट सर्विस ब्लॉक करवाकर लोगों के लिए दुविधा खड़ी करने की बजाए इसे मूलभूत अधिकार बनाने के प्रयास होने चाहिए। जनता अपने मूलभूत अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम और उच्च न्यायालय की ओर देख रही है, अब उसे ही राजस्थान में आए दिन होने वाली इस ‘नेटबंदी’ पर स्व:प्रेरणा से दखल करना चाहिए ताकि भविष्य में इस पर अंकुश लगाया जा सके।