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वबा फैली हुई है हर तरफ, अभी माहौल मर जाने का नहीं…

Published: Aug 11, 2020 06:39:57 pm

Submitted by:

pushpesh

-नहीं रहे मशहूर शायर राहत इंदौरी

वबा फैली हुई है हर तरफ, अभी माहौल मर जाने का नहीं...

वबा फैली हुई है हर तरफ, अभी माहौल मर जाने का नहीं…

इंदौर.

वबा अर्थात् महामारी फैली हुई है हर तरफ, अभी माहौल मर जाने का नहीं..। राहत इंदौरी जैसे अनूठे शायर भले आज हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उनकी बेजोड़ और बेबाक शायरी उनके चाहने वालों के दिलों में जिंदा रहेगी।
डॉ. राहत इंदौरी का कोरोना वायरस संक्रमण से निधन हो गया है। वे 70 वर्ष के थे।
शायरी ही नहीं फिल्मों में भी गीत लिखे
राहत इंदौरी साहब ने बरकतुल्लाह यूनिवर्सिटी से उर्दू में एमए किया था। भोज यूनिवर्सिटी ने उन्हें उर्दू साहित्य में पीएचडी से नवाजा था। राहत ने मुन्ना भाई एमबीबीएस, मीनाक्षी, खुद्दार, नाराज, मर्डर, मिशन कश्मीर, करीब, बेगम जान, घातक, इश्क, जानम, सर, आशियां और मैं तेरा आशिक जैसी फिल्मों में गीत लिखे।

उनकी मशहूर शायरी की चंद पंक्तियां

ये हादसा तो किसी दिन गुजरऩे वाला था / राहत इन्दौरी
ये हादसा तो किसी दिन गुजरऩे वाला था
मैं बच भी जाता तो इक रोज़ मरने वाला था
तेरे सलूक तेरी आगही की उम्र दराज़
मेरे अज़ीज़ मेरा जख़़्म भरने वाला था

बुलंदियों का नशा टूट कर बिखरने लगा
मेरा जहाज़ ज़मीन पर उतरने वाला था

मेरा नसीब मेरे हाथ काट गए वर्ना
मैं तेरी माँग में सिंदूर भरने वाला था
मेरे चिराग मेरी शब मेरी मुंडेरें हैं
मैं कब शरीर हवाओं से डरने वाला था
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लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं
नींद से मेरा त’अल्लुक ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं

मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं
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दोस्ती जब किसी से की जाये
दुश्मनों की भी राय ली जाये
मौत का ज़हर है फिज़़ाओं में,
अब कहाँ जा के साँस ली जाये

बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ,
ये नदी कैसे पार की जाये

मेरे माज़ी के ज़ख्म भरने लगे,
आज फिर कोई भूल की जाये
बोतलें खोल के तो पी बरसों,
आज दिल खोल के भी पी जाये
————————————-

लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं

मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं
नींद से मेरा त’अल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं

मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं

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