scriptमर्द हूं,अगर इस ईगो के साथ जीता तो नहीं बन पाता पैडमैन | From a school dropout to a real Padman | Patrika News

मर्द हूं,अगर इस ईगो के साथ जीता तो नहीं बन पाता पैडमैन

locationनई दिल्लीPublished: Jan 03, 2018 06:34:57 pm

Submitted by:

Ekktta Sinha

अक्षय कुमार की एक मूवी आ रही है इसी 26 जनवरी को पैडमैन। असली पैडमैन अरुणाचलम मुरुगअनंतम की कहानी क्या आपको पता है…
 

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ब्रा खुले में मत सुखाओ। सैनिटरी पैड न्यूजपेपर में लपेटकर फिर काले पॉलीबैग में मार्केट से लाओ। पीरियड हुआ है तो यह मत करो, वह मत करो। यह सब बातें बचपन से ही हमारे देश में लड़कियों को समझा दी जाती है। सीधा सा फंडा है- जो लडक़ी समझ गई तो वह संस्कारी जो नहीं समझ पाई वह बेशर्म। कौन संस्कारी है कौन नहीं इन बातों का फैसला करने में सिर्फ पांच मिनट ही लगता है। चलो हम बेशर्म है, कमजोर है आप सबकी खुशी के लिए सब मंजूर। लेकिन संस्कारी होने का सर्टिफिकेट देने वालों को क्या पता है कि 2014 में आईं एक रिपोर्ट के मुताबिक २३ फीसदी लड़कियां ओडिशा में सिर्फ पीरियड की वजह से स्कूल जाना छोड़ देती है। वहीं देश में 35.5 करोड़ महिलाएं ऐसी हैं जो सैनिटरी पैड की जगह कपड़े, राख-घास का इस्तेमाल करती हैं। भारत में गरीब मर्द अपने नशा पर कहीं से पैसा लाकर खर्च कर सकता है लेकिन पत्नी की सैनिटेरी पैड पर पैसा नहीं लगाता। अजीब लग रहा है न सुनकर। लगना भी चाहिए और ऐसी लड़कियों के लिए कुछ करने का प्रण भी लेना चाहिए। क्योंकि एक बात तय है कि सरकार इस बारे में अपने आप कुछ नहीं करेगी। अब आप पूछेंगे कि इसमें सरकार क्या करें? हर काम आप सरकार से ही क्यों करवाना चाहती हैं? आपकी बात शत प्रतिशत सही भी है। अब सरकार ने सैनिटरी नैपकिन पर 12% जीएसटी लगाया है तो इसका जवाब देना तो होगा ही।
सरकार को सैनिटरी पैड का इस्तेमाल भले ही लग्जरी लग रहा हो लेकिन तमिलनाडु के कोयंबटूर में बैठा एक साधारण और कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति अरुणाचलम मुरुगअनंतम काफी सालों पहले इसके महत्व को समझ गया था। अरुणाचलम के पिता की मृत्यु एक सडक़ हादसे में हो गई थी। पूरा बचपन गरीब में गुजरा। मां खेतों में काम कर पालन पोषण कर रही थीं। पैसों की तंगी हुई तो 14 साल के बाद स्कूल भी छूट गया। इसके बाद अरुणाचलम ने घर चलाने के लिए कई तरह के काम किए। 1998 में शांति उनकी जिंदगी में आईं और दोनों की शादी हो गई। शादी के बाद एक दिन उन्होंने अपनी पत्नी को पीरियड्स के दौरान गंदे कपड़ों और अखबार का इस्तेमाल करते देखा क्योंकि सैनिटरी पैड महंगे आते थे। उस दिन के बाद से अरुणाचलम ने पत्नी के स्वस्थ्य व हाइजिन का ख्याल रखते हुए इस समस्या का समाधान निकालने की कसम खाई और कॉटन का इस्तेमाल करके पैड बनाना शुरू किया। इस पैड को उनकी पत्नी और बहन ने सिरे से नकार दिया। पत्नी व बहन ने समाजिक पहलूओं को ध्यान में रखते हुए अरुणाचलम का साथ देने से भी साफ इनकार कर दिया (वहीं साथ देती तो बेशर्म कहलाती वाला फंडा)। फिर अरुणाचलम ने इस काम के लिए वॉलंटियर की तलाश शुरू की और निराशा हाथ लगी। तब उन्होंने निश्चय किया कि अब बस बहुत हुआ शर्म का त्याग कर सैनिटरी पैड का परीक्षण खुद ही करना होगा। हालांकि गांव के लोगों ने उनका काफी विरोध भी किया। लेकिन
इसके बाद काफी रिसर्च के बाद उन्हें पता चला कि कमर्शियल पैड सेल्यूलोज से बने होते हैं। लेकिन इसे बनाने वाली मशीन बहुत महंगी थी जिसे खरीदना उनके लिए संभव नहीं था। तब अरुणाचलम ने इस काम के लिए खुद मशीन बनाने का इरादा बनाया और 65,000 रु. की मशीन तैयार कर दी। आज उनकी पहचान एक ऐसे पैडमैन की रूप में है जिन्होंने अपनी जिद की वजह से कई औरतों की जिंदगी को बदलने में इसने अहम भूमिका निभाई। उनकी कंपनी जयश्री इंडस्ट्रीज नाम में आज 21,000 महिला कर्मचारी काम करती हैं। इस काम के लिए उन्हें 2016 में पद्मश्री अवार्ड से भी सम्मानित किया गया था।
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