कमजोरी और लाचारी को
बनाना कभी हथियार नहीं। जीवन में लो आनंद, मस्ती,
समझाो बोझ या भार नहीं। सीधा-साधा आदमी बनना,
रख दिल में अहंकार नहीं। धोखा करके नहीं भागना,
छोडऩा कभी मझधार नहीं। कविता-बिछी हुई रेत
डॉ. प्रकाश दान चारण
बनाना कभी हथियार नहीं। जीवन में लो आनंद, मस्ती,
समझाो बोझ या भार नहीं। सीधा-साधा आदमी बनना,
रख दिल में अहंकार नहीं। धोखा करके नहीं भागना,
छोडऩा कभी मझधार नहीं। कविता-बिछी हुई रेत
डॉ. प्रकाश दान चारण
आज फिर तुमने हर बार की तरह
वही पूछा जो हर बार पूछती हो
‘मैं कैसी लगती हूं?’
इस यक्ष प्रश्न का खोजने उत्तर
भाव सरोवर में गहरे उतरना पड़ा
मैं डूबता जाता हूं तुम्हारे प्यार की गहराई में
मैं खोता जाता हूं तुम्हारी सांसों की सुघराई में
मैं चढऩे लगता हूं देही चढ़ान
पाने कुछ नई अनुभूति
देने उसे अभिव्यक्ति का नया आयाम
क्योंकि मैं जानता हूं कि
जो तुम कल थी वो आज नहीं हो
इसलिए पहले की उपमाएं
तुम्हारे लिए आज कहां सटीक बैठती है
मैंने कहा तुम प्यासी नदी हो
तुमने कहा मुझे सागर का खारापन
भाता है
मैंने कहा तुम शीतल छांव हो
तुमने कहा मुझे तपना और तपाना भी आता है
हारकर मैंने कहा तुम रेत हो
जितनी भरता हूं मुट्ठी में
उतनी ही तुम फिसल फिसल जाती हो
सुनते ही तुम मुस्कराई
मानो उपमा ने उपमा पाई
तुमने क्या कहा?
तुमने कहा हां मैं रेत हूं
जो बिछी रहती हूं तुम्हारे लिए
अपनी देह पर तुम्हारे
स्पर्श को नया आकार देने
जब भी तुम करोगे स्पर्श
मैं जी उठूंगी
भरने तुम्हारे खारेपन में मिठास
जब भी तुम भरोगे मुट्ठी में
मैं बह उठूंगी
जगाने तुम्हारी पौरुषी प्यास
मैं देख रहा हूं कि
यह उपमा तुम्हें भा गई
बिछी हुई रेत में
मेरी देह समा गई।
वही पूछा जो हर बार पूछती हो
‘मैं कैसी लगती हूं?’
इस यक्ष प्रश्न का खोजने उत्तर
भाव सरोवर में गहरे उतरना पड़ा
मैं डूबता जाता हूं तुम्हारे प्यार की गहराई में
मैं खोता जाता हूं तुम्हारी सांसों की सुघराई में
मैं चढऩे लगता हूं देही चढ़ान
पाने कुछ नई अनुभूति
देने उसे अभिव्यक्ति का नया आयाम
क्योंकि मैं जानता हूं कि
जो तुम कल थी वो आज नहीं हो
इसलिए पहले की उपमाएं
तुम्हारे लिए आज कहां सटीक बैठती है
मैंने कहा तुम प्यासी नदी हो
तुमने कहा मुझे सागर का खारापन
भाता है
मैंने कहा तुम शीतल छांव हो
तुमने कहा मुझे तपना और तपाना भी आता है
हारकर मैंने कहा तुम रेत हो
जितनी भरता हूं मुट्ठी में
उतनी ही तुम फिसल फिसल जाती हो
सुनते ही तुम मुस्कराई
मानो उपमा ने उपमा पाई
तुमने क्या कहा?
तुमने कहा हां मैं रेत हूं
जो बिछी रहती हूं तुम्हारे लिए
अपनी देह पर तुम्हारे
स्पर्श को नया आकार देने
जब भी तुम करोगे स्पर्श
मैं जी उठूंगी
भरने तुम्हारे खारेपन में मिठास
जब भी तुम भरोगे मुट्ठी में
मैं बह उठूंगी
जगाने तुम्हारी पौरुषी प्यास
मैं देख रहा हूं कि
यह उपमा तुम्हें भा गई
बिछी हुई रेत में
मेरी देह समा गई।