जबलपुरPublished: Sep 18, 2019 06:28:55 pm
गोविंदराम ठाकरे
– हिन्दी की अनवरत सेवा में संस्कारधानी, 1917 में जबलपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के आयोजन से हिंदी को मातृभाषा के रूप में स्थापित करने में बड़ी सहायता मिली
डेढ़ दशक की लम्बी लड़ाई के बाद परसाई की भतीजी के हक़ में आया फैसला,वैध उत्तराधिकारियों के बीच बराबर बंटेगी रायल्टी
जबलपुर। जबलपुर की हिंदी साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत शानदार है। स्वाद, उन्मुक्तता और मोहब्बत में बनारस के करीब है जबलपुर। इसके बारे में कहा जाता है कि यहां काम करने की स्वतंत्रता है, भटकने और चहलकदमी करने की सुविधा भी। जबलपुर की ख्याति सृजन, विचार और संगठन के लिए पहचानी जाती है। आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र अक्सर जबलपुर आते थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी यहां 16 वर्ष तक रहे। उन्होंने अपने अद्भुत ‘आलापÓ में जबलपुर के सम्बंध में दिलचस्प संकेत दिए हैं। मुक्तिबोध की अनेक लम्बी यात्राएं और उनका लम्बे समय तक यहां रहने से एक नए दौर की शुरुआत हुई। ज्ञानरंजन ने 16वें सम्मान के अवसर पर दिए गए वक्तव्य में भाषा के जानकार और प्रसिद्ध विद्वान नागेश्वरलाल के हवाले से कहा था कि जबलपुर में सबसे अच्छी खड़ी बोली सुनी और बोली जाती है।
मान्यताओं के अनुसार जबलपुर में साहित्यिक परम्पराओं की शुरुआत कलचुरि काल से हुई है। भारतेंदु युग के ठाकुर जगमोहन सिंह शृंगार रस के कवि और गद्य लेखक के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। उनका जिक्र रामचंद्र शुक्ल ने भी किया है। सन् 1900 के बाद जबलपुर में कई साहित्यिक संगठन बने और कवि गोष्ठियों की शुरुआत हुई, जो आज भी जारी है। उस समय के कवियों में लक्ष्मी प्रसाद पाठक, विनायक राव, जगन्नाथ प्रसाद मिश्र, बाबूलाल शुक्ल, सुखराम चौबे, छन्नूलाल वाजपेयी का नाम उल्लेखनीय है। जबलपुर साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रकाशन में भी अग्रणी रहा है। काव्य सुधा निधि के संपादक रघुवर प्रसाद द्विवेदी ने छंद काव्य को व्यवस्थित रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कामता प्रसाद गुरु और गंगा प्रसाद अग्निहोत्री जबलपुर में खड़ी हिंदी में काव्य की नई धारा को विकसित करने में सफल रहे। 1917 में जबलपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के आयोजन से हिंदी को मातृभाषा के रूप में स्थापित करने में बड़ी सहायता मिली। इसके बाद जबलपुर के साहित्यकारों ने राष्ट्रप्रेम, प्रकृति
और छायावाद के विविध आयामों के साथ रचनाकर्म किया। चौथे व पांचवें दशक में सुभद्रा कुमारी चौहान, रामानुजलाल श्रीवास्तव, केशव प्रसाद पाठक, नर्मदा प्रसाद खरे और भवानी प्रसाद तिवारी ने कविता लेखन से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई।
सुभद्रा कुमारी चौहान की वीर रस की ‘झांसी की रानीÓ को आज भी बड़े चाव से सुना जाता है। केशव प्रसाद पाठक उमर खय्याम की ‘रूबाइतÓ का अनुवाद कर प्रसिद्ध हो गए।
भवानी प्रसाद तिवारी साहित्कार होने के साथ-साथ राजनैतिक कार्यकर्ता भी थे। स्वतंत्रता आंदोलन में जेल यात्रा में उन्होंने गीतांजलि का अनुवाद किया। पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन व विकास के साथ जबलपुर में उषा देवी मित्रा, देवीदयाल चतुर्वेदी ‘मस्तÓ, इंद्र बहादुर खर, रामेश्वर शुक्ल अंचल जैसे साहित्यकार भी उभरे।
रामेश्वर प्रसाद गुरु और भवानी प्रसाद तिवारी के संपादन में प्रकाशित ‘प्रहरीÓ व ‘सुधाÓ से गद्य व व्यंग्य लेखन को नया आयाम मिला। प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने उपर्युक्त पत्रिकाओं से शुरुआत कर शिखर पर पहुंचे।
सातवें दशक में ज्ञानरंजन ने ‘पहलÓ का प्रकाशन शुरू किया। ‘पहलÓ से जबलपुर को राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई पहचान मिली। ‘पहलÓ ने कालांतर में देश और भूमंडल को छुआ। ज्ञानरंजन आधुनिक हिंदी कहानी के प्रमुख कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। कहानीकार के रूप में ज्ञानरंजन की दृष्टि सर्वाधिक संतुलित, गैर रोमानी और नए उन्मेषों पकड़ पाने में समर्थ रही है।
वर्तमान में मलय की गिनती समकालीन श्रेष्ठ कवियों में होती है। बाबुषा कोहली समकालीन हिन्दी कविता में स्थापित नाम बन चुकी हैं। उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार भी मिल चुका है। विजय चौहान, ओंकार ठाकुर, इन्द्रमणि उपाध्याय, विजय वर्मा, राजेन्द्र दानी, अशोक शुक्ल जैसे रचनाकार छठे-सातवें दशक व समकालीन कहानी में महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। अमृतलाल वेगड़ ने चित्रकला के साथ नर्मदा के सौंदर्य को लेखन के माध्यम से प्रतिष्ठित कर स्वयं भी प्रतिष्ठा अर्जित की है। इस कार्य के लिए साहित्य अकादमी ने भी उन्हें सम्मानित किया है। डॉ. त्रिलोचन पाण्डेय और डॉ. सुरेश वर्मा ने हिंदी भाषा विज्ञान में उल्लेखनीय कार्य किया है। जबलपुर में हिन्दी चेतना को प्रवाहमय बनाने में यहां मंचित होने वाले हिंदी नाटकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
जबलपुर में हिन्दी साहित्य आंदोलन समय के साथ कभी तेजी से तो कभी विलंबित गति से चलता रहा है, लेकिन ठहराव नहीं आया। विभिन्न संस्थाओं ने समय-समय पर छोटे-बड़े आयोजनों के माध्यम से जबलपुर की सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत बना रखा है।
– आलेख- पंकज स्वामी