कभी खेत में बने मचान पर ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती।
यह खुद समझ भी आई है।
खेतों और खलिहानों में गांवों के मैदानों में।
कभी घरों में कुठली देखी, बैलगाड़ी कभी चलाई है।
होती क्या है दिया देवारी, कभी किसी ने बतलाई है।
कहलाती क्या है शहनाई।
किसको किसको पता है भाई ।
कभी आपने अपने खेत में
रोपा धान लगाई है।
कभी खेत में बने मचान पर
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती।
यह खुद समझ भी आई है। देखा कभी पास जाकर भी
ग्राम्य जीवन में क्या कठिनाई है।
कभी जेठ की दोपहरी भी गांवों में बिताई है।
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती।
यह खुद समझ भी आई है। देखा कभी पास जाकर भी
ग्राम्य जीवन में क्या कठिनाई है।
कभी जेठ की दोपहरी भी गांवों में बिताई है।
कभी खेत में बने मचान पर
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती।
यह खुद समझ भी आई है
चना की भाजी, पोई रोटी कब
कब आपने खाई है।
कभी माघ के जाड़े में भी
गांव की नदिया में डुबकी लगाई है।
कभी खेत में बने मचान पर
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती ।
यह खुद समझ भी आई है।
कभी हाट बाट और बाजार में
धूल सनी लाई खाई है ।
कभी आपने सांझ सवेरे गैया भैंस चराई है।
ईदगाह की मस्त कहानी
क्या संतानों को कभी पढ़ाई है।
खुद के हामिद को भी हमने
क्या तरकीब सिखाई है ।
कभी खेत में बने मचान पर
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती ।
यह खुद समझ भी आई है।
कभी संग सब मिलकर घर में
गीता रामायण गाई है।
मां की झाड़ू, पिता की पनही और
कब कब हुई धुनाई है। कभी किसी पोते ने जिद कर
दादा को घोड़ी बनाई है।
कभी किसी ने रो रो
मेला जाने की खुशी पाई है।
गीता रामायण गाई है।
मां की झाड़ू, पिता की पनही और
कब कब हुई धुनाई है। कभी किसी पोते ने जिद कर
दादा को घोड़ी बनाई है।
कभी किसी ने रो रो
मेला जाने की खुशी पाई है।
कभी किसी ने उल्लू बन कर
लल्ला को जीत दिलाई है।
कभी किसी दादी नानी ने
कहानी खूब सुनाई है। माखनलाल चतुर्वेदी की कविता
किसने किसने गाई है।
पुष्प की क्या है अभिलाषा
सुनकर क्या आंख रुलाई है।
लल्ला को जीत दिलाई है।
कभी किसी दादी नानी ने
कहानी खूब सुनाई है। माखनलाल चतुर्वेदी की कविता
किसने किसने गाई है।
पुष्प की क्या है अभिलाषा
सुनकर क्या आंख रुलाई है।
प्रेमचंद की बूढ़ी काकी
क्यों झाूठन ही खाई है।
कभी किसी ने यह भी सोचा
स्वारथ बस प्रीत बढ़ाई है।
कभी खेत में बने मचान पर
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती ।
यह खुद समझ भी आई है।
क्यों झाूठन ही खाई है।
कभी किसी ने यह भी सोचा
स्वारथ बस प्रीत बढ़ाई है।
कभी खेत में बने मचान पर
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती ।
यह खुद समझ भी आई है।
कभी किसी ने मीठी गोली भी
उधार में खाई है।
खेला है कब गुल्ली डंडा
खाए कब जी भर के बंडा ।
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी में
कैंची साइकिल चलाई है।
कभी किसी के मास्टर जी ने
कनमुर्री खींच लगाई है।
कभी किसी ने चकिया देखी।
रामलाल की बछिया देखी।
फसल काटते हंसिया देखी।
दादी मां की खटिया देखी।
कभी खेत में बने मचान पर
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती ।
यह खुद समझ भी आई है।
रामलाल की बछिया देखी।
फसल काटते हंसिया देखी।
दादी मां की खटिया देखी।
कभी खेत में बने मचान पर
ठिठुरती रात बिताई है।
रात पूस की क्या कहलाती ।
यह खुद समझ भी आई है।