डॉ. नीतू मेनारिया शक्ति और साहस संजोकर, व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर समाज एवं देश के हित में जब-जब भी नारी ने कदम उठाए हैं वह आदरणीय एवं वन्दनीय बनी है। हम माँ दुर्गा की आराधना इसलिये करते हैं, कि उन्होंने करूणामयी नारी होते हुए भी आवश्यकता पडऩे पर शस्त्र ग्रहण कर अपने शरणागतों की रक्षा की। राजस्थान के सिरमौर मेवाड़ में ऐसी अनेक वीरांगनाओं ने जन्म लिया जिन्होंने कठिन परिस्थितियों में अपनी समझ बूझ और हिम्मत से मेवाड़ का गौरव तो बढ़ाया ही साथ ही अनेक अवसरों पर उसकी स्वाधीनता की रक्षा के लिये अपना सब कुछ अर्पित कर दिया। वीर भूमि चित्तौड़ के इतिहास प्रसिद्ध तीनों साका 1303 ई., 1535 ई. एवं 1568 ई. में नारी शक्ति, शौर्य एवं महाबलिदान की अमरगाथाएं सदियों से साहित्य एवं इतिहास लेखन की दृष्टि से प्रेरक रही हैं। प्रथम साका सन् 1303 में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ (मेवाड़) पर आक्रमण के समय रावल रतनसिंह की पत्नि रानी पद्मावती ने संकट के दौरान मेवाड़ के गौरव, नारी के सतीत्व की रक्षा के साथ साथ आन मान और हिन्दू धर्म के लिए जो आत्मोसर्ग एवं बलिदान किया यह नारी जाति के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय बन गया। सन् 1527 में महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद उनके द्वितीय पुत्र रतनसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठा किन्तु उनकी असमय मृत्यु हो जाने के बाद उनका छोटा भाई विक्रमादित्य महाराणा बना। मेवाड़ के सभी सामन्त उससे नाराज थे। ऐसी परिस्थिति में मेवाड़ की महारानी कर्मवती (करूणावती) को असहाय समझकर गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। कठिन समय देखकर राजामाता कर्मवती (करूणावती) ने सभी सामन्तों को पत्र लिखकर सहायता की प्रार्थना की इसी अवधि में मुगल सम्राट हुमाँयू माण्डू पर अधिकार करने के पश्चात् मेवाड़ पर हमला करने के लिये मंदसौर में था उस वक्त कर्मवती (करूणावती) ने हुमाँयू को रक्षासूत्र भेज कर सहायता का प्रस्ताव भेजा, परन्तु हुमायुं मेवाड़-मुगल (हिन्दु-मुस्लिम) एकता के इस अवसर का लाभ उठाने से वंचित रहा। इस कारण 1535 में दुसरे साके में मेवाड़ पर बहादुर शाह ने आक्रमण कर किया। जो मेवाड़ के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। वस्तुत: बहादुर शाह के पास पुर्तगाली तोपखाना था। तोपों की मार से किले की दीवारें टूट गई। आगे बढ़ती शत्रु-सेना से मुकाबला करते हुए कई मेवाड़ी वीर बलिदान हो गये तो स्व. राणा सांगा की राठौड़ रानी जवाहर बाई पुरूष वेश में अपनी स्त्री सेना के साथ हमलावरों पर टूट पड़ी। उनके वीर गति प्राप्त करने के बाद तोपों की मार से किले के तीनों मोर्चे ध्वस्त हो गये। परिस्थिति की गम्भीरता को समझ कर राजमाता कर्मवती ने ‘जौहर’ करना तय किया। तेरह हजार वीरांगनाओं के साथ उन्होंने ‘सार्मद्धेश्वर मन्दिर’ के विशाल प्रांगण में बनी विशाल चिता में प्रवेश किया। दुर्ग में बचे वीरों ने भी केसरिया बाना पहना और मरणान्तक युद्ध करने लगे। ‘‘पाडल पोल’’ के मोर्चे पर रावत बाघसिंह ने अप्रतिम शौर्य का प्रदर्शन किया। उनका स्मारक आज भी किले के द्वार पर बना है। यह सन् 1535 का 8 मार्च का दिन था।
( जैसा कि लेखिका डॉ. नीतू ने लिखा, नीतू उदयपुर के तक्षशिला शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय में प्राध्यापिका है)