नई दिल्ली: किसी अपराध के लिए मानवीय सभ्यता के लिए हमेशा से ही चुनौतियां पेश करता रहा है कि सजा का आधार क्या हो। अपराध की जघन्यता, उम्र, पिछला आपराधिक रिकॉर्ड अथवा अन्य सबूत। ताउम्र कैद यानी 14 साल या सलाखों के पीछे पूरी जिंदगी। जघन्य अपराधों में दोषियों को 30 साल की सजा दी जाए अथवा पूरी उम्र यानी प्राकृतिक मृत्यु तक जेल। उम्रकैद की अवधि कितनी हो? सजा से सुधारात्मक पहलू पुष्ट हो सकता है? कानून में बदलाव की जरूरत है?
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 53 के अनुसार अपराधियों को पांच प्रकार के दंड- मृत्युदंड, आजीवन कारावास, सश्रम या साधारण कारावास, संपत्ति की कुर्की और आर्थिक जुर्माना देने का प्रावधान किया गया है।
दंप्रसं की धारा 433 ए के अनुसार मृत्युदंड को कम करके आजीवन कारावास बदली सजा और मृत्युदंड के अपराधों के बदले दी गई आजीवन कारावास की सजा चौदह वर्ष से कम नहीं हो सकती।
दरअसल संविधान में कहीं नहीं लिखा कि उम्रकैद 14 की होगी। देश की हर अदालत आरोप साबित होने के बाद ये तय करती है कि अपराधी को उम्रकैद मिले या कोई और सजा।
सन् 2012 में सुप्रीम कोर्ट अपने निर्णय से यह स्पष्ट कर चुका है कि आजीवन कारावास का मतलब जीवनभर के लिए जेल है और इससे ज्यादा कुछ नहीं। कोर्ट ने इसकी और अधिक व्याख्या करने से इनकार करते हुए कहा कि उम्रकैद का मतलब उम्रभर के लिए जेल।
आजीवन कारावास का मतलब दोषी की जिंदगी समाप्त होने तक जेल में रहने से है और इसका मतलब केवल 14 या 20 साल जेल में बिताना भर नहीं है। हमें ऐसा लगता है कि इस बारे में एक गलत धारणा है कि आजीवन कारावास की सजा पाए कैदी को 14 साल या 20 साल की सजा काटने के बाद रिहाई का अधिकार है। ऐसे कैदी को आखिरी सांस तक जेल में रहना होता है, बशर्ते कि उसे उचित प्राधिकार वाली किसी सरकार ने कोई छूट नहीं दी हो।
अदालत का काम सजा सुनाना है और उसे एक्जीक्यूट करना मतलब लागू करना राज्य सरकार के हाथ में है। सुप्रीम कोर्ट कहता है कि ये राज्य सरकार के अधिकार में आता है कि वो उम्रकैद के आरोपी को 14 साल में रिहा करे, 20 साल में या ताउम्र जेल में रखे या मौत होने तक जेल में रखे।