दफ्तरों में काम के लंबे घंटे और बोझ के बीच कई लोग ऐसे मिल जाते हैं, जो किसी सहकर्मी से कहीं ज्यादा हो जाते हैं। इन रिश्तों का नाम हमेशा ‘प्रेम-संबंध’ नहीं होता। छोटे शहरों से नौकरी की तलाश में आए लोगों से भरे यह शहर और इन शहरों के दफ्तर, कई नए रिश्तों की जन्मस्थली बन रहे हैं।
दीपिका शर्मा
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दफ्तरों में बढ़ती नजदीकियों के चलते बढ़ते ‘ऑफिस रोमांस’ के बारे में तो सुना ही होगा। घर-परिवार की समस्याओं से खीजते-ऊबते पति या पत्नी का ऑफिस में किसी की तरफ आकर्षित होकर बनने वाले रिश्ते नैतिकता-अनैतिकता की कसौटी पर हमेशा से तौले जाते रहे हैं। लेकिन दफ्तरों में सिर्फ रोमांटिक रिश्ते नहीं बनते, बल्कि पति-पत्नी में कम होते संवाद, बढ़ते काम के घंटे, सोशल मीडिया के बढ़ते दायरे व घरों में रिश्तों के बीच बढ़ता अकेलापन, खालीपन को भरने की ललक ऑफिसों में पूरी हो रही है।
एक समय था, जब दफ्तरों में अधिकतर पुरुष दिखते थे, पर अब यह प्रतिशत लगातार बराबरी की तरफ बढ़ रहा है। एकल परिवारों में आर्थिक नैया को संभालने के लिए पति-पत्नी दोनों ऑफिस जा रहे हैं। दिन का बड़ा हिस्सा यहीं गुजर रहा है। इस समय में लोग अपने निजी जीवन की उथल-पुथल व परेशानियों से निजात पाने के लिए एक-दूसरे के करीब आते हैं। ऐसे में कभी दोस्त, तो कभी भाई, कभी मां तो कभी बड़ी बहन या कभी सिर्फ भावनात्मक रिश्ते की तलाश में यह दफ्तर कई रिश्तों को संजोने का काम कर रहे हैं।
रिश्तों का दफ्तर
वो मेरी ‘मां’ जैसी हैं…
इलाहबाद से पहले मुंबई और अब दिल्ली में आकर नौकरी कर रही प्राची यादव, लगभग 6 सालों से घर से बाहर हैं। घर से दूर अक्सर अकेलेपन में मां की बहुत याद आती है, लेकिन प्राची को अपने ही दफ्तर में ‘मां जैसीÓ वैभवी मैम मिल गई हैं। दोनों में मां-बेटी जितना उम्र का अंतर नहीं था, लेकिन वैभवी उसके खाने से लेकर उसकी बीमारी तक, हर बात में उसका साथ देती। कई बार उसके लिए घर से नाश्ता बना कर लाती हैं। प्राची बताती हैं कि वो मेरी दोस्त, साथी, गॉसिप-पार्टनर, अभिभावक और न जाने क्या-क्या थी। मेरे मुंबई के दिनों में वह मेरा सबसे बड़ा सपोर्ट सिस्टम थीं।
प्रशंसा एक जरूरत थी
दीपक और रूपल (बदला हुआ नाम) के बीच कॉमन चीज सिगरेट थी, जिससे उनकी दोस्ती शुरू हुई। धीरे-धीरे दोनों बेहद अच्छे दोस्त हो गए और ऑफिस के अलावा कई निजी परेशानियों में भी एक-दूसरे की मदद करने लगे। रूपल घर और दफ्तर दोनों जिम्मेदारियां संभाल रही थी पर इस बात के लिए जितनी प्रशांसा की वह उम्मीद करती थी, उसके पति से उसे नहीं मिलती थी। वहीं सहकर्मी दीपक न केवल उसे समझता है, बल्कि उसके काम और उसके द्वारा बनाए लंच की खूब तारीफ करता है। यही कारण था कि रूपल को जो घर में नहीं मिल पा रहा था वह भावनात्मक जरूरतें वह दफ्तर में खोज रही थी।
परिस्थितियां बढ़ा रही हैं नजदीकियां
मानसिक सहयोग और संवाद दो इंसानी जरूरते हैं लेकिन एकल परिवारों में पुरुष और महिला दोनों नौकरी कर रहे हैं और किसी के पास समय नहीं है। टेक्नेलॉजी ने भी लोगों के बीच सीधा संवाद बहुत कम कर दिया है। लंबे होते काम के घंटों के बीच लोग तनाव से जूझने के लिए भावनात्मक सहयोग ऑफिसों में ढूंढ़ते हैं।
डॉ चेतन लोखंडे, मनोचिकित्सक
यह जरूरत है
दफ्तरों में बनने वाले सभी रिश्ते ‘ऑफिस रोमांस’ नहीं होते, बल्कि यह प्रतिशत काफी कम है। अधिकतर पुरुष 35 से 45 की उम्र में जीवन की एकरसता से ऊब जाते हैं और घर से बाहर दूसरे साथी की तलाश करते हैं। वहीं महिलाओं के लिए यह भावनात्मक मुद्दा है। अब महिलाएं भी पुरुषों की तरह ही घर से बाहर निकल कर काम कर रही हैं, लेकिन फिर भी उन्हें इसके लिए घरों में उतना सम्मान नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। ऐसे में दफ्तर में किसी साथी द्वारा तारीफ और सम्मान उन्हें काफी सुकून देता है।
डॉ. सागर मुंदड़ा, मनोचिकित्सक