क्यों जरूरी Corona Package का 20% बच्चों पर खर्च करना?
कैसे आए बच्चों के लिए राम-राज?
IAS दंपति से मिल कर क्यों हुए थे हैरान?
नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी
कोरोना के दौर में बच्चों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन इस पर कोई बात नहीं हो रही। यह कहना है बच्चों के हक के लिए दशकों से काम कर रहे कैलाश सत्यार्थी का। पेशे से इंजीनियर रहे सत्यार्थी को बच्चों के लिए उनके काम के लिए दुनिया का सबसे बड़ा नोबल शांति पुरस्कार मिल चुका है।
बच्चों के हालात को ले कर आपका क्या डर है और उसकी वजह क्या है?
सत्यार्थी- महामारी आने के बाद से बच्चे बाहर नहीं निकल पाए। उनमें अकेलापन, अवसाद, झुंझलाहट ऐसी चीजें विकसित हो रही हैं। दुनिया के 1.6 अरब बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे हैं। 38 करोड़ बच्चों का स्कूल से मिलने वाला खाना या वजीफा आदि रुक गया है। खतरा यह है कि इनमें से बड़ी संख्या में बच्चे स्कूल नहीं लौट पाएंगे। देखा गया है कि इस तरह की स्थिति के बाद बच्चों की मजदूरी, अशिक्षा और गुलामी, वैश्यावृत्ति और ट्रैफिकिंग बहुत बढ़ जाती है। संसाधन विहीन बच्चे या तो मजदूरी में धकेल दिये जाएंगे या दलाल लोग ले जाएंगे।
इस स्थिति से निपटने के लिए क्या कर रहे हैं?
सत्यार्थी- लगभग 100 नोबल विजेताओं और वैश्विक नेताओं ने मांग की है कि बच्चों को न्यायसंगत हिस्सा मिले। अब ‘लॉरिएट्स एंड लीडर्स फॉर चिल्ड्रन’ (Laureates and Leaders for Children) के तहत 9-10 सितंबर को इसी विषय पर इनका सम्मेलन हो रहा है।
दुनिया भर में 18 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के पैकेज दिए जा रहे हैं। लेकिन यह मुख्य रूप से अमीर देशों के बैंकों और कंपनियों को बचाने के लिए खर्च हो रहा है। इस तरह विषमता और गरीबी बढ़ जाएगी। ऐसी विषमता से तनाव और बढ़ेगा। गरीब बच्चों के दुरुपयोग की आशंका और बढ़ेगी। अगर शांतिप्रिय और सुरक्षित दुनिया बनाना चाहते हैं तो ऐसा मत होने दीजिए। ऐसे पैकेज का 20 प्रतिशत हिस्सा सर्वाधिक उपेक्षित 20 फीसदी बच्चों और उनके परिवार पर खर्च किया जाए। बुधवार से शुरू हो रहे सम्मेलन में स्वीडन के प्रधानमंत्री स्टीफन लोफवेन, नोबल विजेता मोहम्मद यूनुस अंतरराष्ट्रीय गायक रिकी मार्टिन, तिब्बती धर्मगुरू दलाई लामा सहित कुल 39 नोबल विजेता और वैश्विक नेता भाग लेने वाले हैं।
भारत के 20 लाख करोड़ के पैकेज में बच्चों के लिए क्या था? सत्यार्थी- भारत ही नहीं दुनिया के अधिकांश देशों में कोरोना पैकेज में बच्चों के लिए कुछ नहीं है। महामारी में बच्चे सबसे उपेक्षित रह जाते हैं। स्कूल, शिक्षा, स्वास्थ्य से वंचित रह जाते हैं, देह व्यापार और बाल मजदूरी का शिकार हो जाते हैं।
भारत के लिए जरूरी कदम? सत्यार्थी- कितना बड़ा विरोधाभार है कि भारत की 40 फीसदी आबादी युवा है। लेकिन इस पर जीडीपी का 4 फीसदी भी खर्च नहीं हो रहा। जरूरी है कि हम उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और उनके जीवन को खुशहाल बनाने पर खर्च करें।
मां-बाप के बच्चों से संबंध को ले कर क्या कहेंगे? सत्यार्थी- लोग मेहनत से हो या भ्रष्टाचार से, पैसा कमाते हैं ताकि बच्चों की पढ़ाई पर खर्च कर सकें, जबकि उन्हें किसी और चीज की जरूरत होती है। एक IAS दंपति से मुलाकात हुई। उनके बच्चे ने आत्महत्या कर ली थी। वे मानने को तैयार नहीं थे। कह रहे थे सबसे महंगे स्कूल, कपड़े, जूते दिलाते थे, विदेश घुमाते थे। जांच में पता चला कि बच्चे का यौन शोषण होता रहा और मां-बाप से वह बोल नहीं पाया। ऐसी परवरिश का क्या फायदा? अपने सपनों और इच्छाओं को थोपने की बजाय बच्चों की बातों को सुनें। उनके दोस्त बनें।
बच्चों से बड़े क्या सीख सकते हैं? सत्यार्थी- हम बच्चों को झूठ, आडंबर और बनावटी जीवन सिखाते हैं। शिष्टाचार के नाम पर झूठ बोलना सिखाते है। जबकि उनसे सहजता, पारदर्शिता और क्षमा करना सीख सकते हैं। नई-नई बातें जानने की उत्कंठा उनसे सीखें।
बच्चों के लिए राम राज्य कब आएगा? सत्यार्थी- इसके लिए भारत को बाल मित्र देश बनाना होगा। ‘डिजिटल इंडिया’, ‘स्वच्छ भारत’ जैसी योजनाएं बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन यह भी सुनिश्चित करना होगा कि किसी बच्चे का किसी तरह से शोषण उत्पीड़न नहीं हो। उन्हें आजादी, शिक्षा और पोषण मिले।
नोबल शांति पुरस्कार मिलने से क्या फर्क आया? सत्यार्थी- पहले बच्चों के काम के लिए अपने देश के किसी अधिकारी से भी बात करनी होती तो महीनों चक्कर लगाने पड़ते थे। अब जिस देश में जाता हूं, राष्ट्राध्यक्ष चाय पिलाते हैं। कोशिश रहती है कि हर मौके का फायदा उपेक्षित बच्चों के हक की बात के लिए करूं। इस पुरस्कार से उपेक्षित बच्चों को आवाज मिल पा रही है।
‘लॉरिएट्स एंड लीडर्स फॉर चिल्ड्रन’ (Laureates and Leaders for Children) के प्रयासों से बच्चों के मुद्दों को वैश्विक सतत विकास लक्ष्य (SDG) में शामिल किया गया और दुनिया भर के देश इस पर काम कर रहे हैं। जबकि इससे पहले के सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य (MDG) में इनकी कोई चर्चा नहीं थी।
आप जिन बच्चों को बंधुआ मजदूरी से छुड़ाते हैं उनका पुनर्वास भी हो पाता है या फिर वे दुबारा उसी काम में लौटने को मजबूर हो जाते हैं? सत्यार्थी- ज्यादातर मामलों में मां-पिता की शिकायत आती है कि झूठ बोल कर या लालच दे कर बच्चों को दलाल लोग मजदूरी में लगा लेते हैं। या बहला-फुसला कर ले आते हैं। साल-छह महीने में जब इन्हें पैसा नहीं मिलता और कोई खबर भी नहीं आती ऊपर से पुलिस के पास जाने की हिम्मत नहीं होती तब ये किसी माध्यम से हम तक पहुंचते हैं। ऐसे में हम पुलिस और सरकारी महकमों की सहायता से छापा मार कर उन्हें छुड़वाते हैं।
शुरू-शुरू में तो उनके पुनर्वास के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। लेकिन इसी सरकार के दौरान पुनर्वास राशि का प्रावधान 20 हजार रुपये से बढ़ा कर 2 लाख तक कर दिया गया है। बंधुआ मजदूरी के शिकार हर बच्चे के मां-पिता को रोजगार के लिए सहायता मिलती है, नकदी नहीं। अब तो बहुत कम मामलों में ही ऐसा होता है कि बच्चों को दुबारा उसी दलदल में आना पड़े।
अंतरराष्ट्रीय कानून बनवाने की पहल का क्या हुआ? सत्यार्थी- बहुत से लोगों को यह जान कर हैरानी होगी कि 1998-99 तक दुनिया में बच्चों की गुलामी, बंधुआ मजदूरी, वैश्यावृत्ति जैसे मामलों में कोई अंतरराष्ट्रीय कानून नहीं था। मेरे जैसे साधारण कार्यकर्ता के मन में विचार आया और फिर आंदोलन खड़ा हुआ। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइजेश (ILO) ने खतरनाक और बदतर हालत की बाल मजदूरी को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून बनाया। दो-तीन हफ्ते पहले ही यह पहला ऐसा अंतरराष्ट्रीय कानून बना है जिसका सभी देशों ने अनुमोदन कर दिया है।