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कविता-बिखरीं कलियां

locationजयपुरPublished: Jul 03, 2022 01:17:57 pm

Submitted by:

Chand Sheikh

कविता

कविता-बिखरीं कलियां

कविता-बिखरीं कलियां

डॉ. अजिता शर्मा

बाबुल के आंगन की वो नवकलियां
हंसती-खेलतीं मुस्कराती वो कलियां ॥
जिन पर माता-पिता का साया ऐसा
जैसे फूलों पर हो ठंडी छैयां॥

संस्कारों और संस्कृतियों से भरा जीवन
जैसे हों उनकी अनमोल दुनिया ॥
लेकिन नियति के कू्रर हाथों से
अभावों में बिखरीं वो कलियां॥
पर एक दूसरे का संबल बनी वो कलियां
माता-पिता के बिना अपनी अनुजों की
प्रेरणा बनी वो कलियां ॥
जीवन की ठोकरें खा कर
सम्भाला एक दूसरे को
जमाने को समझाने,उससे लडऩे का
दम भरती थी वो कलियां ॥अपने अपने आंगन की जिम्मेदारियों
को बख़ूबी निभाती थी वो कलियां ॥
बाबुल के आंगन से दूर हो के भी
मन से सदैव जुड़ी रहती थीं वो कलियां ॥

दूर होकर भी जिनका मन बसता था
बाबुल के आंगन में
जो रहती थी अपनों की सेवा में ॥
पर जिनका मन अटका रहता था
भाई की अनमोल मुस्कराहट में
जो था उनका दुलारा,माता पिता का प्यारा
बेबसी में भी हमेशा सभी को
खुश करने में लगी रहीं वो कलियां ॥
लेकिन कहीं न कहीं अंदर से टूटी सी वो कलियां
बिखरीं थी वो कलियां ॥
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कलियां दीवानी हो गई
छप्पर से बरसा सोता
नींद बेगानी हो गई
निर्धन आसमां ताके
कहीं कोई शैतानी हो गई
कीचड़ फैला सर-ए-राह
बड़ी परेशानी हो गई
पोखर बहे दिन-रात
बाढ़ की मनमानी हो गई
कुदरत से करके बैर
अलग कहानी हो गई
खता हुई हमसे और कहा
मेघों से नादानी हो गई।
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