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कविता – फूंकनी से चूल्हा सुलगातीं

locationजयपुरPublished: Oct 25, 2021 11:57:42 am

Submitted by:

Chand Sheikh

Hindi poem

कविता - फूंकनी से चूल्हा सुलगातीं

कविता – फूंकनी से चूल्हा सुलगातीं

भारती जैन

धूल धुएं भरी आंखों से रोटी सेकतीं स्त्रियां
रसोई की स्लेब पर रखे गैस के चूल्हे पर खाना पकातीं
घंटों खड़ी रहकर घुटनों का दर्द झेलतीं स्त्रियां

ढेर में से कुछ अनमोल सा पा जाने की खुशी मनातीं
मुंह अंधेरे उठकर कचरा बीनतीं युवतियां
डिस्को की धुन पर थिरकती गातीं,
जीवन के हर पल को उत्सव की तरह मनातीं
संभ्रांत होने का दर्प ओढतीं युवतियां
परम्पराओं और रीति रिवाजों की आड़ में
बंदिशों का जीवन जीतीं वैधव्य भोगतीं स्त्रियां
व्यस्तताओं से फुर्सत न पातीं,
पुरुषों से बराबरी का संतुलन बैठातीं
मांग में सिंदूर, माथे पर बिंदिया सजातीं सुहागन स्त्रियां

हर परिवेश में ग्रामीण हो या शहरी
हर स्थिति में संपन्न हो या विपन्न
हर अवस्था में विधवा हो या सुहागन
उम्र के हर मोड़ पर, जीवन के हर पड़ाव पर
हर स्त्री के अपने-अपने दुख हैं,
हर स्त्री के अपने-अपने सुख हैं
किसी से नहीं है मुकाबला,
खुद से है स्त्री की जंग
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