लौटती नहीं वय फिर से
मन का कोना टटोलता है
पुन: उन्हीं स्मृतियों को
खटखटाता है दर,बस!
सीली-सी नम धरा नजर आती है कहीं !
लौटना पड़ता है.......... परवान चढ़ता है इश्क
एक जुनून की तरह
कभी छूता है क्षितिज
तो कभी ताकता है धरा
मगर,वो खुमारी जीने तलक
अपने प्रियतम की राह तकती है,वहीं !
लौटना पड़ता है...........
सलवटें आती हंै अक्सर
जीवन के हर दौर में
कभी खुलती हुई,कभी सिमटती-सी
चरमराती-सी, कभी अंगड़ाई लेती हुई
मिटाने का एक अनथक प्रयास
मगर निशां अपने छोड़ जाती है वहीं
लौटना पड़ता है.............
मन का कोना टटोलता है
पुन: उन्हीं स्मृतियों को
खटखटाता है दर,बस!
सीली-सी नम धरा नजर आती है कहीं !
लौटना पड़ता है.......... परवान चढ़ता है इश्क
एक जुनून की तरह
कभी छूता है क्षितिज
तो कभी ताकता है धरा
मगर,वो खुमारी जीने तलक
अपने प्रियतम की राह तकती है,वहीं !
लौटना पड़ता है...........
सलवटें आती हंै अक्सर
जीवन के हर दौर में
कभी खुलती हुई,कभी सिमटती-सी
चरमराती-सी, कभी अंगड़ाई लेती हुई
मिटाने का एक अनथक प्रयास
मगर निशां अपने छोड़ जाती है वहीं
लौटना पड़ता है.............
सुकून पाने की चाह में,
किए जाते हैं न जाने कितने जतन
कभी कुछ करके भी नहीं मिल पाता
तो कभी दो पल भी
दे जाते हैं हमें बहुत कुछ
बस! इसी आस में होती है
तमाम जिंदगी!
लौटना पड़ता है आखिर सभी को!
किए जाते हैं न जाने कितने जतन
कभी कुछ करके भी नहीं मिल पाता
तो कभी दो पल भी
दे जाते हैं हमें बहुत कुछ
बस! इसी आस में होती है
तमाम जिंदगी!
लौटना पड़ता है आखिर सभी को!
पढि़ए एक और कविता चिमनी का धुआं
सुरेश चन्द्र 'सर्वहारा' लील गया
गांव को
चिमनी का धुआं। सूख कर जल
नदी का
बन गया भाप,
वायु भी
दूषित हो
बढ़ा रही ताप। लोगों ने
पाट दिया
रहा सहा कुआं।
लील गया गांव को
चिमनी का धुआं।
सुरेश चन्द्र 'सर्वहारा' लील गया
गांव को
चिमनी का धुआं। सूख कर जल
नदी का
बन गया भाप,
वायु भी
दूषित हो
बढ़ा रही ताप। लोगों ने
पाट दिया
रहा सहा कुआं।
लील गया गांव को
चिमनी का धुआं।
बन गए
फर्नीचर
जंगल के पेड़,
चारागाह
नष्ट हुए
भटक रही भेड़। खो गई
सियारों की
अब हुआं हुआं।
लील गया
गांव को
चिमनी का धुआं। हरियाले
खेत में
उग गए मकान,
उजड़ी है
अमराई
पनघट सुनसान। कामकाज
छोड़ सब
खेल रहे जुआ।
लील गया
गांव को
चिमनी का धुआं।
फर्नीचर
जंगल के पेड़,
चारागाह
नष्ट हुए
भटक रही भेड़। खो गई
सियारों की
अब हुआं हुआं।
लील गया
गांव को
चिमनी का धुआं। हरियाले
खेत में
उग गए मकान,
उजड़ी है
अमराई
पनघट सुनसान। कामकाज
छोड़ सब
खेल रहे जुआ।
लील गया
गांव को
चिमनी का धुआं।
गांवों को
लग गया
शहरों का रोग,
अनजाने
हो गए
अपने ही लोग। भर गया
स्वार्थ से
तन का हर रुआं।
लील गया
गांव को
चिमनी का धुआं।
लग गया
शहरों का रोग,
अनजाने
हो गए
अपने ही लोग। भर गया
स्वार्थ से
तन का हर रुआं।
लील गया
गांव को
चिमनी का धुआं।