जान के दुश्मनों के भरोसे जान !
जैसलमेरPublished: Jan 16, 2019 06:26:47 pm
फतेहगढ़ क्षेत्र में एक कथित झोला छाप डॉक्टर के इंजेक्शन से एक युवक की मौत का मामला इन दिनों सुर्खियों में है। यदि यह बात पड़ताल में सच साबित होती है तो चिकित्सा सेवाओं में पिछाड़ी जिले के लिए इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात कोई हो ही नहीं सकती।
जान के दुश्मनों के भरोसे जान !
फतेहगढ़ क्षेत्र में एक कथित झोला छाप डॉक्टर के इंजेक्शन से एक युवक की मौत का मामला इन दिनों सुर्खियों में है। यदि यह बात पड़ताल में सच साबित होती है तो चिकित्सा सेवाओं में पिछाड़ी जिले के लिए इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात कोई हो ही नहीं सकती। सोचने वाली बात यह है कि जिम्मेदारों की नाक के नीचे शर्तिया उपचार के नाम पर चल रहा गोरखधंधा चलाने वालों की आखिर हिम्मत हो कैसे गई ? कोई इसको जिम्मेदारों की शिथिलता बता रहा है तो कोई जिले में चिकित्सा सुविधाओं की कमी होने से इलाज की मजबूरी तो कोई विभागीय कार्रवाई में सख्ती का अभाव…। इन सबके बीच कड़वी सच्चाई यह है कि जिले में नीम हकीमों व झोलाछाप चिकित्सकों की बढ़ती सक्रियता यहां के बाशिंदों के स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा बनी हुई है। इलाज के नाम पर जगह-जगह बेरोकटोक गोरखधंधा चल रहा है, लेकिन इन्हें कोई रोकने ही नहीं है। दबाव की स्थिति में जिम्मेदार विभाग की ओर से कभी-कभार एक-दो झोला छाप चिकित्सकों पर कार्रवाई कर कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है। फतेहगढ़ में जब यह मामला उजागर हुआ तो संबंधित अस्पताल को सीज कर दिया गया। प्रश्न यह कि जिले के एक उपखण्ड मुख्यालय पर चलने वाले अस्पताल की खबर क्या जिम्मेदार विभाग को नहीं थी ? गड़बड़झाले में सांठ-गांठ का खेल कितना है, यह जांच का विषय है, लेकिन यह सच अवश्य है कि चिकित्सा महकमे की ओर से कठोर कार्रवाई नहीं किए जाने से शहर ही नहीं, बल्कि गांवों में नीम हकीमों का गोरखधंधा खुले आम चल रहा है। जिले का नहरी क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। नहर आने से विकसित हुए गांवों में जहां आबादी बढ़ी है वहीं नीम हकीमों ने इन क्षेत्रों में पहुंचकर अपनी जड़ें जमा ली है। जिन क्षेत्रों में आबादी अधिक और चिकित्सा सेवाएं कमजोर हैं, वहां नीम हकीम सक्रियता अपेक्षाकृत अधिक है। निराशाजनक बात यह है कि इन सबके बारे में जानकारी होने के बावजूद विभाग का रवैया शिथिल ही बना हुआ है। अमूमन कार्रवाई के दौरान यही देखने को मिलता है कि अधिकांश नीम हकीम भूमिगत हो जाते हैं और मामला शांत होने पर फिर से नीम हकीम सक्रिय हो जाते हैं। कार्रवाई के दौरान इक्का दुक्का नीम हकीम ही टीम के हत्थे चढ़ते हैं, जबकि कार्रवाई होने से पहले ही अधिकांश झोला-छाप डॉक्टर भूमिगत हो जाते हैं। अब बात जागरुकता की कमी की। माना कि चिकित्सा सेवाओं की कमी से नीम हकीम व झोला छाप डॉक्टर्स का व्यवसाय फल-फूल रहा है, लेकिन धड़ाधड़ अंग्रजी दवाइयां लिखने से लेकर ड्रिप चढ़ाने, इंजेक्शन लगाने और टीके लगाने वाले सैकड़ों नीमहकीमों की दुकानें चल ही क्यों रही है ? चिकित्सा सेवाओं व साधनों की कमी होने पर कुछ किलोमीटर दूर जाना क्या इन नीम हकीमों से उपचार कराने से ज्यादा हानिकारक हो सकता है ?