स्कूली बच्चे अक्सर खुद को मध्यस्थता की भूमिका में फंसा हुआ सा महसूस करते हैं। अपने दोस्तों के साथ तारतम्य बिठाने के लिए उसे अपने अंदर बहुत कुछ बदलना पड़ता है। किशोरों के पास वयस्कों की भांति दोस्ती में ज्यादा आजादी नहीं होती। यह स्वीकार करें कि संतुलन बहाल करने में समय और साहस लगता है। उनके ऐसे छोटे-छोटे प्रयासों के लिए हमें उनकी प्रशंसा कर हौसला बढ़ाना चाहिए।
बच्चे मदद के लिए तैयार रहते हैं लेकिन बड़े जब उन्हें उनके व्यवहार पर सलाह देने लगें तो वे खामोश या विद्रोह भी करने लगते हैं। इसलिए हमें ऐसे माहौल बनाने की जरुरत है जहां बच्चे बिना किसी नकारात्मकता के जो महसूस करते हैं वैसा व्यवहार कर सकें। स्वायत्तता की उनकी भावनाओं का सम्मान करना भी जरूरी है। लेकिन एकतरफा दोस्ती में खुद का नुकसान न करने की सलाह भी दें।
अपने बच्चों को आत्म-त्याग और पारस्परिकता में अंतर करना सिखाएं। कहानियों, नैतिक शिक्षाओं और पौराणिक या पंचतंत्र की कथाओं के जरिए उन्हें उदाहरण देकर स्वार्थी मित्रों के लिए आत्म त्याग करने और अंत में खाली हाथ न रह जाने के अंतर को भी समझाएं। दोसती में एकतरफा लेन-देन सही नहीं, हमेशा देते रहना आपके महत्त्व को घटाता है। बच्चों को यह सोचने के लिए प्रेरित करें कि उनकी मदद के लिए कौन सही पात्र है और कहां उन्हें पीछे हट जाना चाहिए। उदार होने का यह मतलब सह नहीं कि हम अपना ही नुकसान करवाते रहें।
अपने बच्चों को समझाएं कि हमेशा वे ही दूसरों की मदद क्यों करें? उन्हें बताएं कि दोस्ती में मदद करना एक साझा जिम्मेदारी होनी चाहिए। जब बच्चे यह समझने लगें कि सहानुभूमि और मदद करने का जज्बा दो-तरफा भावना होती हैं तो माता-पिता इस बात से निश्चिंत हो सकते हैं कि कोई उन्हें मूर्ख बनाकर लगातार उनका लाभ उठा सकता है।
माता-पिता को इस रूढ़िवादिता को भी चुनौती देने की जरूरत है कि केवल लड़कियां ही भावनात्मक पहलू उजागर करें, मर्द अपनी भावनाओं को उजागर नहीं करते। यह दोनों के लिए हानिकारक है। अपनी भावनाओं को व्यक्त न कर पाने के कारण ही आज हमारे समाज में पुरुषों में अकेलेपन और आत्महत्या की दर तेजी से बढ़ रही है।
अपने किशोर बच्चों को बताएं कि उनकी मदद की भी एक सीमा है। वे हर किसी की मदद नहीं कर सकते। हर समस्या का अलग समाधान होता है। इसलिए किसी और को वह भूमिका निभाने दें। अगर बच्चा अपने दायरे से बाहर जाकर मदद करने का प्रयास कर रहा है तो उसे भटकने न दें। यह एक प्रभावी तरीका है क्योंकि ऐसा कर के आखिर में वह नुकसान ही करेगा।
शोध कहते हैं कि हमारा मूड और भावनाएं बहुत जल्दी पहचान में आ जाती हैं। खासकर स्कूली बच्चों में यह ज्यादा उजागर होती हैं। इसलिए जैसे हमारे दासतों की भावना होती है कुछ देर बाद हम भी वैसा महसूस करने लगते हैं। इन तीव्र भावनाओं को पहचानना भी आना चाहिए। संवेदनशील लोगों को सबसे ज्यादा ठेस लगती है। इसलिए बच्चों में स्वस्थ संबंधों को विकसित करने के लिए जरूरी है कि हम उन्हें करुणा और आत्म-करुणा के बीच संतुलन बनाने में मदद करें। आत्म-उपेक्षा वास्तव में जीवन के लिए एक खतरनाक दृष्टिकोण है।