श्रीनगर की आरिफा जान ने आतंकवाद का काला दौर, घर की खराब आथिक स्थिति और कई क्षेत्रों में महिलाओं का विरोध के बावजूद अपना अलग नाम बनाया । उसने विपरीत परिस्थितियों और तमाम विरोध की परवाह न करते हुए कुछ अलग करने की ठानी। उसका कहना है कि अपने पिता और पति की सहायता से ही वह इस मुकाम तक पहुंच पाई है।
आरिफा श्रीनगर के एक मध्यमवगीज़्य परिवार से ताल्लुक रखती है। कश्मीर विश्वविद्यालय से कॉमर्स में ग्रेजुएशन करने के बाद उसने दो साल का क्राफ्ट मैनेजमेंट प्रोग्राम किया। लेकिन उसके पास इतने रुपये नहीं थे कि इसे कर पाती। तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने उसकी सहायता की। आरिफा का कहना है कि इस प्रोग्राम के अंत में उसे मास्टर प्रोजेक्ट देना था। उसने नमदा को बढ़ावा देने का प्रोजेक्ट बनाया। नमदा ऊन से बना हुआ एक कालीन है। कश्मीर में अक्सर लोग घरों में फर्श पर इसे डालते हैं। लेकिन यह कला कश्मीर में धीरे-धीरे खत्म हो रही थी। इसे वापस अपना मुकाम दिलाना आरिफा के लिए आसान नहीं था। इसकी मांग खत्म हो गई थी।
आरिफा का कहना है कि उसने इस प्रोजेक्ट पर रिसर्च की। उसने पाया कि इसकी गुणवत्ता में कमी आई है। इस कारण विदेशों में इसकी मांग कम हो गई। उसने आधुनिक तरीकों से इसे फिर से पहले जैसा बनाने के लिए प्रयास किए। आरिफा की लगन और मेहनत को देखकर स्थानीय बुनकरों ने भी उसका साथ दिया। आरिफा का कहना है कि उसने मार्केट के नए ट्रेंड देखे। नए डिजाइन बनाए और नई दिल्ली में आयोजित प्रदर्शनी में हाथ से बने नमदा प्रदर्शित किए। बस यह उसके लिए टर्निंग प्वाइंट था। इस प्रदर्शनी में उसके काम को सभी ने सराहा।
कश्मीर में एक महिला के उद्यमी बनने का कई लोग विरोध भी कर रहे थे। उसके लिए व्यापार के लिए पैसा जुटाना भी आसान नहीं था। यह ऐसी चुनौतियां थी जिसे पार करना था। आरिफा का कहना है कि उसने विरोध की परवाह नहीं की। उसका परिवार भी उसके साथ खड़ा रहा। व्यापार के लिए पैसे नहीं थे। बैंक से लोन नहीं लेना चाहती थी। उसे किसी तरह से सहायता मिली। इसके बाद उसने बुनकरों को मनाया और कई नए डिजाइन बनाए। पहले उन्हें दिन में काम करने के 175 रुपये मिलते थे लेकिन मैंने उनकी दिहाड़ी 450 रुपये कर दी। उसका कहना है कि बिना बुनकरों की सहायता के यह संभव नहीं था।
धीरे-धीरे उसके काम को यूएस ने भी सराहा। नमदा बनाने में अच्छी ऊन का इस्तेमाल किया। आज विदेशों में भी उसके बनाए नमदा की मांग है। आरिफा आज कश्मीर की एक सफल व्यवसायी है। उसके इसी काम को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सराहा गया। आज राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद उसे नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया।
वहीं लेह की निलजा वांगमो ने लदाख में लुप्त होते व्यंजनों को फिर से प्रचलित किया। निल्ज़ा एक उद्यमी है जो अलची रसोई रेस्तरां चला रहा है। रेस्तरां पारंपरिक लद्दाखी व्यंजनों को परोसने वाला पहला है जिसमें कुछ उत्तम और विस्मृत व्यंजनों को शामिल किया गया है।