उदयपुर

कुछ ऐसी है किताबों की दुनिया, यहां जो आता है ढ़ेरों यादें लेकर लौटता है #worldbookdayspecial

उदयपुर- किताबों के इस अनूठे बाजार से वर्षों पुरानी किताबों को भी न्यूनतम दामों पर खरीदा जा सकता है।

उदयपुरApr 24, 2018 / 04:40 pm

madhulika singh

राकेश शर्मा ‘राजदीप’ / उदयपुर- दिल्ली के दरियागंज क्षेत्र को सबसे बड़े पुस्तक बाजार की दृष्टि से हमेशा याद किया जाएगा। बरसों से हर रविवार को दरियागंज की गलियों में पुरानी किताबों का बाजार आबाद हो रहा है। जहां हर रविवार को लाखों किताबों की खरीद-फरोख्त होती है, विद्या व्यसनी का मेला लगता है। किताबों के इस अनूठे बाजार से वर्षों पुरानी किताबों को भी न्यूनतम दामों पर खरीदा जा सकता है।
 

इसके बाद पश्चिम बंगाल में बोई पारा की ‘कॉलेज स्ट्रीट’ का नंबर आता है, जहां करीब डेढ़ किलोमीटर लंबी गली किताब कॉलोनी के नाम से मशहूर है। वहां देश भर के पुस्तक प्रेमी साल भर आते-जाते रहते हैं। इसी तरह, उत्तर में विक्टोरिया टर्मिनस और दक्षिण में काला घोड़ा तक फैला मुंबई का फोर्ट एरिया भी पुरानी किताबों के ख्यात ‘किताबखाना’ दुनियाभर में प्रसिद्ध है। जयपुर में भी हर रविवार लगने वाले ‘हटवाड़े’ में अन्य वस्तुओं के साथ पुरानी किताबों का आकर्षण लोगों को खींच लाता है।
 

तकनीक ने बदला पढऩे का शौक
यकीनन, तकनीक के बढ़ते विस्तार के कारण आमजन की जीवनचर्या बुरी तरह प्रभावित हुई है। एक ओर जहां उसने गूगल, मेल और सोशल मीडिया के जरिए दुनिया को मु_ी में समेट लिया है, वहीं दूसरी ओर डिजिटल माध्यमों के अंधाधुंध उपयोग के चलते किसी चीज पर ध्यान देने की क्षमता में सतत कमी पाई गई है। साल 2015 में हुए एक सर्वे के मुताबिक मानव की किसी चीज पर ध्यान देने की क्षमता 12 सेकण्ड से घटकर 8 सेकण्ड हो गई है। विशेषज्ञों का मानना है कि डिजिटल तकनीक के कारण भले ही जीवन सुविधाजनक हुआ हो, लेकिन डिजिटल माध्यम कभी किताबों की जगह नहीं ले सकते हैं।
 

 

बोस्टन लाइब्रेरी तक पहुंची मेवाड़ी पौथियां

मेवाड़ में हस्तलिखित ग्रंथों की नकल (कॉपियां) करने का काम कुंभा काल में बहुत हुआ। दसवीं-बारहवीं शताब्दी में आहाड़ में भी राजस्थानी पेंटिंग की पुस्तक सुपश्यना चरितम् से लेकर चौदहवीं शताब्दी में देलवाड़ा और चित्तौड़ तथा पद्रहवीं शताब्दी में कुंभलगढ़ पुस्तक प्रणयन के केंद्र बने। मूर्तिकला, चित्रकला और वास्तुकला जैसे विषयों पर संस्कृत में लिखे कलामूल ग्रंथों ने कलिंग से लेकर करनाट, खंभात, कोल्हापुर और बनारस तक अपनी छाप छोड़ी। उस दौर में कपड़े से बने कागज के उपयोग से तैयार की गई कई चित्रित पाण्डुलिपियां (जिन्हें लोग दान तक किया करते थे), आज भी बोस्टन लाइब्रेरी की शान बनी हुई हैं। इसी तरह, चित्तौडगढ़़ के सूरा शाह ने अपने शासनकाल में पुस्तक प्रतिलिपि केंद्र के जरिए बड़ी संख्या में चित्रित ग्रंथ तैयार कराए।

डिजिटल वल्र्ड में भी लुभाती हैं किताबें
डिजिटल इंडिया के प्रसार के साथ लॉग इन करके किताबें ऑनलाइन पढऩे वालों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है। गूगल, ई-बुक स्टोर, अमेजन पर किंडल और एंड्रॉयड सॉफ्टवेयर पर कहीं कीमत चुकाकर तो कहीं नि:शुल्क किताबें पढ़ीं जा रही हैं। यही नहीं, अब ई-कामर्स साइट के जरिए किताबें पाठकों की पहुंचने लगी हैं। महानगरों से लेकर छोटे शहरों और गांवों तक भी पाठक और साहित्य प्रेमी ऑनलाइन किताबें खरीदने लगे हैं। ऐसे में वेबसाइट्स, ट्वीटर हैंडल, फेसबुक पेज पर ई-बुक के व्यापक प्रसार के इस दौर में छपी किताबों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है और डिजिटल बुक्स अपनी सकारात्मक भूमिका अदा करती प्रतीत हो रही हैं।
Copyright © 2024 Patrika Group. All Rights Reserved.