दीपा पत्रिका कीनोट सलोन में अपनी बेटी और पैराएथलीट देविका मलिक के साथ सवालों के जवाब दे रही थीं। दीपा मलिक पहली महिला पैराएथलीट हैं, जिन्होंने 2016 के रियो ओलंपिक में देश के लिए सिल्वर मैडल जीता। खास बात यह कि दीपा ने इस मैडल के लिए मेहनत उस उम्र में की, जब लोग आराम करना चाहते हैं। दीपा मलिक ने 46 साल की उम्र में यह मैडल जीतकर हर महिला के दिलों में सपने भरे। समाज की सोच बदल दी कि 46 की उम्र में मैडल जीतने जैसे सपने तो नहीं देखे जाते। दीपा और देविका रविवार को मदर्स डे के मौके पर पत्रिका कीनोट सलोन में शामिल हुईं। देविका खुद भी डिसएबल हैं।
दीपा और देविका दोनों ही व्हीलिंग हैप्पीनेस संस्था चलाती हैं, जिसके जरिए डिसएबल लोगों को सशक्त बनाने का काम दोनों करती हैं। शो का मॉडरेशन पत्रिका के विशाल सूर्यकांत ने किया। इस मौके पर उन्होंने कहा कि यह मैडल मेरे लिए नहीं आया था। यह देश की उन महिलाओं के लिए था, जो उम्र देखकर अपने सपनों को खत्म कर देती हैं। यह उन लोगों के लिए भी था, जो अपनी शारीरिक कमियों की वजह से खेलने को अपने लिए दूर की बात समझते हैं। डिसएबिलिटी के साथ भी जिंदगी वो सब देती है, जो आप चाहते हो। बस उसके लिए आपके सपनों में जान होनी चाहिए। हौसले होने चाहिए।
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सोच विकलांग ना हो..
दीपा मलिक कहती हैं। हां, मेरा आधा शरीर पेरेलाइज है, पर मेरी सोच नहीं है, मेरी आत्मा पेरेलाइज्ड नहीं है, मेरे सपने पेरेलाइज्ड नहीं है। दुनिया इस दिव्यांगता को कमी या बेचारगी या नकारात्मकता से ही देखती है। मुझे फैशन, स्पोर्ट, घूमने का शौक था। लेकिन मुझे विकलांग देख इन सबसे बेदखल माना गया। मैंने यह सब नहीं माना। मैं जानती हूं मैं खूबसूरत हूं। व्हील चेयर पर होना कोई बदसूरती नहीं। यह भी ठीक है।
जीवन की धारा के विपरीत..
दीपा बताती हैं कि वे मोटर साइक्लिंग करना चाहती थी। लेकिन डॉक्टर ने साफ मना किया। डॉक्टर ने हाइड्रोथैरेपी की सलाह दी। पानी में उतरी तो पता चला कि मैं अपने दोनों हाथों से तैर पा रही हूं। फिर क्या था यमुना की धारा के विपरीत तैराकी की और लिम्का बुक आॅफ वल्र्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज करवा लिया। शरीर में कोई कमी है तो उसके गिल्ट से बाहर आ जाना, धारा के विपरीत तैरना, आपको जीना सिखाता है।
मां से मिला आत्मविश्वास
दीपा मलिक की बेटी और स्पोर्ट साइकोलॉजिस्ट देविका कहती हैं कि मैं डिस्एबल हूं लेकिन कॉन्फिडेंस पूरा है। ये डिसएबिलिटी बहुत कुछ सिखाती है। मेरे जितने भी अचीवमेंट्स हैं, सबके के लिए मां ने आत्मविश्वास दिलाया। इसीलिए हम मां—बेटी एक साथ इंटरनेशनल स्पोट्र्स में खेली और जीती भी हैं। देविका कहती है कि हीन भावना या विकलांग होने की गिल्ट से बाहर आ जाते हैं तो आप खुश रहना सीख जाते हैं। समाज की इसी सोच को बदलने पर दीपा और देविका दोनों ही मां—बेटी को यूएन और नीति आयोग से वीमन ट्रांसफोर्मिंग अवॉर्ड मिल चुका है।
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कोरोना टाइम में खोजें खुशी
दीपा मलिक कहती हैं कि कोरोना ने रूककर सोचने का मौका दिया है। परिवार के साथ जीने का मौका दिया है। मैं इन दिनों आॅनलाइन दसवीं का मैथ्स पेपल सॉल्व करती हूं, क्योंकि मैं जब दसवीं में थी मैथ्स में कमजोर थी। अपनी कमजोरियों पर काम करना हर किसी को सीखना चाहिए। उम्मीद का एक दीया जलाकर जरूर रखना। मुश्किलें हैं, लेकिन खुशी के तरीके खोजे जा सकते हैं।