स्थानीय भाषा में ‘उस्ताद’ कहे जाने वाले इन पहलवानों ने हिम्मत नहीं हारी है और अपने बलबूते अखाड़ा परंपरा को जिंदा रखते हुए प्रतिभाओं को तराश रहे हैं। हल्दी, छाछ व सरसों के तेल से तैयार करते हैं अखाड़ा
फतेहसागर स्थित लालबहादुर शास्त्री व्यायामशाला के प्रमुख व अन्तरराष्ट्रीय पहलवान दाउलाल भाटी ने बताया कि अखाड़े में आने वाले नवोदित लड़कों को नियमित वर्जिश के साथ कुश्ती सीखने से पहले अखाड़ा तैयार करवाया जाता है। अखाड़े का पूरा क्षेत्र चौकोर होता है, जो 12/12 फीट या इससे ज्यादा भी हो सकता है।
इसमें चिकनी मिट्टी डाली जाती है, फिर छाछ, हल्दी व सरसों का तेल डाल कर फावड़े से मिट्टी में मिलाया जाता है। भाटी ने बताया कि इस प्रक्रिया की वजह यह है कि इससे मिट्टी मुलायम हो जाती है। पहलवान के नीचे गिरने पर उसको हड्डी संबंधी या अन्य चोट नहीं लगती।
धोबी पछाड़ से फिरकी तक दांवपेंच कुश्ती के दौरान एक पहलवान को अपने विरोधी से बचने के लिए कई दांवपेंच लगाने पड़ते है। इनमें धोबी पछाड़, बकरा पछाड़, कलाजंग, पुट्ठी, सकी, भारंदाज, निकाल, ढाक, बंगडी, नमाजबंध, फिरकी, बैगसाल्टो आदि दांवपेंच होते हैं। इनकी ट्रेनिंग नवोदित पहलवानों को दी जाती है। भाटी ने बताया कि अखाड़े कम हो गए हैं, अब पहलवान मैट्स पर कुश्ती खेल रहे हैं। सही मायनों में कुश्ती तो अखाड़ों में खेले जाने वाला खेल है।
रूस तक धाक जमाई ‘जहरीले मच्छर ‘ ने अन्तरराष्ट्रीय पहलवान दाउलाल भाटी ने वर्ष 1977 में रूस में आयोजित रेसलिंग कॉम्पीटिशन में देश का प्रतिनिधित्व किया। भाटी ने बताया कि कुश्ती खेल की आधुनिक पद्धति की वजह से अखाड़े लुप्त हो गए, लेकिन सही मायनों कुश्ती अखाड़ों वाली ही होती है। अखाड़ों के वर्तमान हाल पर भाटी ने बताया कि सरकार की आेर से सुविधा मिले, तो वे अन्तरराष्ट्रीय स्तर के कई पहलवान तैयार कर सकते हैं। अपने जमाने में ये विरोधियों में ‘जहरीले मच्छर’ नाम से जाने जाते थे। वर्तमान में ये लालबहादुर शास्त्री व्यायामशाला में पहलवान तैयार कर रहे हैं।
घंटाघर और पंचायती कुश्ती वर्ष 1960 से कुश्ती खेलना शुरू करने वाले शहर के एक अन्य पहलवान साबिर अली ने बताया कि उनके जमाने में पंचायती कुश्ती का चलन बहुत ज्यादा था। घंटाघर में इस तरह की कुश्ती का आयोजन होता था। इसमें दो पक्ष अपने-अपने पहलवानों की कुश्ती करवाते थे और विजेता को पुरस्कार स्वरूप पैसे मिलते थे। उन्होंने बताया कि शहर में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। सरकार से इस पारंपरिक खेल को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, कई विजेता निकलेंगे। अली ने राष्ट्रीय स्तर तक कुश्ती खेली है।
कम समय में नहीं होता क्षमता का आकलन वर्ष 1978 में हिसार में आयोजित राष्ट्रीय प्रतियोगिता का हिस्सा रहे बाबूलाल शर्मा आज भी वर्जिश करते हैं। शर्मा ने बताया कि उनके जमाने में पहलवान कुश्ती में हर दांव को अच्छी तरह से खेलता था। अब आधुनिक कुश्ती में कम समय में ही पहलवान को अपने विरोधी को हराना पड़ता है। इससे उसकी क्षमता का आकलन नहीं हो पाता है। शर्मा वर्तमान में आदर्श विद्या मंदिर स्कूल के बच्चों को कुश्ती का प्रशिक्षण दे रहे हैं।
52 से 6 पर आ गए बरकतुल्लाह खान व्यायाम शाला के हाजी हमीम बक्श ने बताया कि मुस्लिम समाज के करीब 52 वर्जिश क्लबों में से अब केवल 5-6 क्लबों के अखाड़ों में पहलवान तैयार हो रहे हैं। आधुनिक व ओलंपिक स्टाइल की कुश्ती ने अखाड़ों को खत्म किया, लेकिन सरकार आधुनिक सुविधाएं दे, तो शहर से हर वर्ष गोल्ड मेडल विजेता निकल सकता है। कुश्ती के क्षेत्र में अश्विनी भाटी, गोविन्दराम कोली आदि प्रमुख नाम हैं।