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आजादी के बाद मेडिकल क्षेत्र ने विकास की नई ऊंचाई को छुआ – डॉ. गोकाणी

locationसूरतPublished: Aug 16, 2022 08:34:35 pm

Submitted by:

Sanjeev Kumar Singh

– आजादी का अमृत महोत्सव विशेष…
– माता और नवजात मृत्युदर में आया काफी सुधार, सरकार के प्रयासों से लोगों के घर पहुंची सुविधाएं

आजादी के बाद मेडिकल क्षेत्र ने विकास की नई ऊंचाई को छुआ - डॉ. गोकाणी

आजादी के बाद मेडिकल क्षेत्र ने विकास की नई ऊंचाई को छुआ – डॉ. गोकाणी

संजीव सिंह. सूरत.

आजादी का अमृत महोत्सव में भारत को आजादी दिलाने वाले अमर शहीदों को याद किया जा रहा है। देश की आजादी के बाद चिकित्सकीय क्षेत्र में हुए बदलावों के गवाह रहे सूरत के चिकित्सक दंपति ने राजस्थान पत्रिका के साथ अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने बताया कि आजादी के पहले माता मृत्युदर एक लाख में 2000 थी जो देश आजाद होने के दो साल बाद ही 1950 में घटकर 1000 हो गई थी। उस समय देश में 50,000 डॉक्टर थे। 2022 में मेडिकल क्षेत्र काफी बदल गया है। गंभीर बीमारियों के मरीजों को भी बेहतर चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हैं। देश आजाद होने के बाद भी सूरत निवासी मरीजों की रिपोर्ट जांच के लिए वडोदरा, अहमदाबाद और मुम्बई भेजे जाते थे। अब सूरत के अस्पतालों में बड़े से बड़े जटिल ऑपरेशन और आर्गन ट्रांसप्लांट हो रहे हैं।

देश साल 2022 में आजादी के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रहा हैं। देश के गौरवशाली इतिहास में मेडिकल क्षेत्र ने भी समय के साथ विकास की नई ऊंचाइयों को छुआ है। शहर में गायनेकोलॉजिस्ट डॉ. भानुचन्द्र एम. गोकाणी और डॉ. तरलिका बी. गोकाणी ने राजस्थान पत्रिका को आजादी के पहले और अब तक के सफर के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि सूरत में गोपीपुरा पारसीवाड अस्पताल 1964 में शुरू किया था। उसके बाद 1970, 1984 में अलग-अलग क्षेत्रों में अस्पताल शुरू किए।
डॉ. भानुचन्द्र का जन्म 17 अक्टूबर 1931 को गुजरात के द्वारका में हुआ है। उन्होंने 13 वर्ष की उम्र में मुम्बई के हंसराज मोरारजी स्कूल में दाखिला लिया। ग्रांट मेडिकल कॉलेज से 1960 में मेडिकल की पढ़ाई पूरी की। पत्नी डॉ. तरलिका का जन्म 5 सितंबर 1932 को जूनागढ़ जिले की बिलखा गांव में हुआ। उन्होंने सौराष्ट्र क्षेत्र में पहली महिला गायनेकोलॉजिस्ट बनने का गौरव हासिल हुआ। मैट्रिक में टॉप करने के बाद स्कॉलरशिप के जरिए दिल्ली के लेडी हार्डिंग मेडिकल कॉलेज से 1956 में एमबीबीएस और मुम्बई ग्रांट मेडिकल कॉलेज से एमडी की पढ़ाई पूरी की। डॉ. तरलिका ने बताया कि राजकोट रेलवे अस्पताल से मरीजों का इलाज शुरू किया।
लालटेन की रौशनी में कराया प्रसव

1962 का एक किस्सा है जिसमें वह सुरेन्द्रनगर जिले के ग्रामीण क्षेत्र में प्रसूति करवाने के लिए गई थीं। गांव में बिजली नहीं थी और लालटेन की रौशनी में माता ने नवजात को जन्म दिया। वह बताती हैं कि आजादी के बाद भी कई साल तक खून की जांच, थैलेसीमिया की जांच, सोनोग्राफी समेत कई आधुनिक सुविधाएं उस समय आसानी से उपलब्ध नहीं थीं। सूरत के मरीजों के सैम्पल वडोदरा, अहमदाबाद और मुम्बई भेजे जाते थे। आजादी के समय ब्लडबैंक की संख्या भी काफी कम थी। मरीजों के परिजनों को ही खून देने के लिए तैयार करना होता था। इसके बाद भी व्यवस्था नहीं होने पर दूसरे शहरों से खून के यूनिट मंगवाए जाते थे। देश आजाद होने के बाद भी स्थानीय स्तर पर कल्ला का प्रोसिजर अपनाते थे जिसमें गर्भवती महिला के पेट पर दबाकर प्रसव करवाया जाता था। इसमें माताओं की मौत का प्रतिशत काफी अधिक था। कई बार नवजात की गर्भ में ही मौत हो जाती थी या जन्म के कुछ देर बाद ऑक्सीजन की कमी से नवजात दम तोड़ देते थे।
अब स्थितियां बेहतर

चिकित्सक दंपति ने बताया कि 2019 के आंकड़े के मुताबिक एमएमआर 103 है। 2022 में गर्भवती महिलाओं के पोषण से लेकर बच्चे के जन्म होने तक विभिन्न योजनाओं के तहत लोगों को इलाज की व्यवस्था उपलब्ध करवाई जा रही है। आज मेडिकल क्षेत्र में व्यापारीकरण शुरू हो गया है, जिससे डॉक्टरों को दूरी बनानी चाहिए। मरीजों के लिए डॉक्टर का दर्जा भगवान का था। इस सम्मान को बचाए रखने की जवाबदारी भी हम चिकित्सकों की है।
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