-चुनाव लडऩे का भी नहीं था साहस 1989 से लगातार अजेय भाजपा और उससे पहले भारतीय जनसंघ 60-70 के दशक में चुनाव लडऩे की भी स्थिति में नहीं थे। संगठन के पास न कार्यकर्ता थे और न ही धन था। इसके बावजूद 1967 में पहली बार जनसंघ के मंगलसेन चौपड़ा ने पूर्व प्रधानमंत्री व कांग्रेस के दिग्गज मोरारजी देसाई के खिलाफ चुनाव लड़ा। चौपड़ा के साथ तब पूर्व केंद्रीय मंत्री काशीराम राणा, वसंत देसाई, सुनील मोदी, चंपक सुखडिय़ा, फकीर चौहान आदि गिने-चुने कार्यकर्ता ही साइकिलों पर सवार होकर प्रचार करते थे।
-कहने वाले और सुनने वाले हम ही 1980 में भाजपा की स्थापना भले ही हो गई, लेकिन सांगठनिक स्तर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा था। पार्टी के पूर्व जिला उपाध्यक्ष बाबुलाल जैन बताते हैं कि 1984 के लोकसभा चुनाव से पहले तक यह स्थिति थी कि जिले में गिनती के कार्यकर्ता थे जो स्वयं सभा में बोलते और सुनते थे। सभा में 50 जने एकत्र होने पर बड़ी खुशी होती थी और इससे भी ज्यादा खुशी तब मिलती थी जब पार्टी के किसी प्रत्याशी की चुनाव परिणाम में जमानत बच जाती थी। उस दौर में इसकी भी खुशियां भाजपा कार्यकर्ता मनाता था।
-फिर पलटकर पार्टी ने पीछे नहीं देखा भाजपा ने सूरत में पहला लोकसभा चुनाव 1984 में लड़ा और काशीराम राणा हार गए, लेकिन बाद में पार्टी ने पलटकर पीछे नहीं देखा। भाजपा के पुराने कार्यकर्ता ताराचंद कासट बताते हैं कि इससे पहले 1982 में कोटसफिल रोड पर अटलबिहारी वाजयेपी की सभा में भारी भीड़ जुटी और प्रवासी कपड़ा व्यापारी समाज ने भी 11 लाख की सहयोग राशि भाजपा संगठन को दी। उस दौर में ऐसा करंट बना कि 1984 का चुनाव भले पार्टी हार गई, लेकिन 1989 से 33 साल बाद आज भी भाजपा यहां अजेय है।
