सूरत दुनिया के तेजी से विकसित हो रहे शीर्ष शहरों में शामिल है। व्यावसायिक और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी एजेंसियों ने ही नहीं, जलवायु परिवर्तन के असर का अध्ययन कर रही विभिन्न एजेंसियों ने भी सूरत को अपने अध्ययन में शामिल किया है। महानगरीय प्रबंधन के विशेषज्ञ पेड्रो बी आर्टिज पिछले दिनों भारत दौरे पर थे। इसी दौरान वह सूरत भी आए थे और जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने को लेकर सूरत की तैयारियों पर मनपा प्रशासन के साथ चर्चा की थी। आर्टिज के अध्ययन के मुताबिक सूरत समेत समुद्री किनारे के शहरों में जलवायु परिवर्तन का असर तो अभी से नजर आ रहा है, लेकिन आने वाले दशकों में यह और साफ दिखने लगेगा। समुद्र में जिस तरह से हलचल बढ़ रही है, 2070 तक समुद्र का जलस्तर दो मीटर तक बढ़ सकता है। ऐसा होता है तो मिंढोला नदी के क्षेत्र में आ रहे किनारे के स्थानों पर डूब और बाढ़ का खतरा बना रहेगा।
जलवायु परिवर्तन के असर से बचने के ठोस उपाय नहीं किए गए और समुद्र का जलस्तर बढऩे की यही रफ्तार रही तो करीब तीन सौ साल में समुद्र का जलस्तर छह मीटर तक बढ़ जाएगा। इसका असर तापी नदी में देखने को मिलेगा। तापी किनारे के दोनों ओर एक बड़ा हिस्सा बाढ़ और डूब क्षेत्र में आ जाएगा। उन्होंने कहा कि ऐसी हालत में जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए लोग या तो पलायन कर जाते हैं या फिर पहले से ही उससे निपटने के उपाय करते हैं। जलवायु परिवर्तन के असर से बचना है तो सूरत को पूरी ताकत के साथ उससे निपटने के उपाय करने होंगे। ऐसा नहीं किया तो समुद्र के लिए जमीन छोडक़र लोगों को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
एयरपोर्ट को खतरा नहीं सूरत एयरपोर्ट डूमस समुद्र से काफी ऊंचाई पर बना हुआ है। इसलिए समुद्र का जलस्तर छह मीटर तक बढऩे के बाद भी एयरपोर्ट बचा रह सकता है। भविष्य में कभी ऐसे हालात बने और रेस्क्यू के लिए एयर प्लेटफॉर्म तैयार करने की जरूरत पड़ी तो एयरपोर्ट बेहतर विकल्प है।
राकफेलर ने लिया था एजेंडे पर समुद्र के व्यवहार और बदलती जलवायु के अध्ययन को लेकर क्लाइमेट चेंज पर काम कर रही संस्था रॉकफेलर फाउंडेशन ने सबसे पहले सूरत को अपने एजेंडे पर लिया था। रॉक फेलर फाउंडेशन के तहत सौ रेजिलियंट सिटी (100 आरसी) प्रोग्राम में सूरत ने प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए स्ट्रेटेजी तैयार है। रोटरडम और सूरत के बीच एमओयू हुआ है, जिसमें रोटरडम ने आश्वस्त किया कि जलवायु परिर्वतन के असर से निपटने में वह सूरत की मदद करेगा। 100 आरसी की लोकल बॉडी ने जलवायु परिवर्तन का सामना करने और इससे जुड़ी चुनौतियों के साथ अनुकूलन स्थापित करने के लिए स्ट्रेटेजी भी तैयार की है। इस टीम से जुड़े लोग मानते हैं कि भू-जलविज्ञानियों, सरकारी एजेंसियों और स्थानीय समुदायों के बीच बेहतर तालमेल को बढ़ावा देने की जरूरत है। ऐसा करने से जलवायु परिवर्तन से संबंधित सूखे एवं बाढ़ जैसी चरम स्थितियों और जल सुरक्षा को लेकर समझ विकसित करने में मदद मिलेगी। साथ ही इससे निपटने लिए प्रभावी रणनीति तैयार की जा सकेगी।
जलवायु अनुकूलन पर जोर जानकार मानते हैं कि आम तौर पर जलवायु अनुकूलन से जुड़ी रणनीतियां प्रभावी नहीं हो पातीं। जलवायु परिवर्तन की चरम स्थितियों में ही नहीं, बल्कि जल सुरक्षा जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी स्थानीय समुदायों को सक्षम बनाना होगा। जलवायु परिवर्तन के असर को समझने के लिए हो रहे अध्ययन के नतीजे जलवायु अनुकूलन स्थापित करने संबंधी कार्यक्रमों एवं परियोजनाओं को अधिक प्रभावी बनाने में मददगार हो सकते हैं।
परिवर्तन की गणना से मिलेगी मदद जलवायु परिवर्तन के खतरे से बचना है तो उसकी गणना के उपाय करने होंगे। एट्रीब्यूशन स्टडीज इसमें मददगार हो सकती है। इसके जरिए यह पता लगाया जाता है कि जलवायु परिवर्तन मौसम की चरम घटनाओं के लिए किस हद तक जिम्मेदार है। आम तौर पर ऐसे विश्लेषणों में निष्कर्ष तक पहुंचने में महीनों लग जाते हैं। कंप्यूटर के बेहिसाब मौसम के आंकड़ों की पड़ताल के बाद किसी नतीजे पर पहुंचा जाता है। एट्रीब्यूशन स्टडीज के जरिए सूरत पर पडऩे वाले जलवायु परिवर्तन और उसके असर को पढ़ा जा सकता है।
हजारों साल पहले की जलवायु का हाल भी अज्ञात नहीं पुरा-जलवायु वैज्ञानिक प्रोफेसर रंगास्वामी रमेश ने हजारों वर्ष पहले की जलवायु को समझने की दिशा में विशेष काम किया है। उन्होंने स्थायी सम-स्थानिकों, जैसे- कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और सल्फर के आनुपातिक इस्तेमाल से पुरा-तापमान और पुरा-वर्षा की गणना के सूत्र विकसित किए। हजारों साल पहले महासागरों में हलचल की प्रवृत्ति, उस वक्त का वायुमंडल और जलवायु दशाओं को समझने के लिए प्रोफेसर रमेश ने कई महत्वपूर्ण सूत्र दिए। सहयोगी एस.के. भट्टाचार्य और कुंचिथापडम गोपालन के सम्मिलित प्रयास का नतीजा था कि देश में पहली स्थायी सम-स्थानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई। इस प्रयोगशाला में अनुसंधानकर्ताओं ने हजारों साल पहले की मानसून परिस्थितियों का अध्ययन कर महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। उन्होंने स्थायी सम-स्थानिकों, जैसे- कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और सल्फर के अनुपातों का उपयोग करते हुए पुरा-तापमानों और पुरा-वर्षा की गणना के लिए सूत्र विकसित किए। प्रोफेसर रमेश ने अभिनव युग के दौरान हुए मानसून परिवर्तनों के उच्च विभेदी अभिलेख भी तैयार किए, जो भविष्य की चुनौतियों से निपटने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं।