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देवी चंद्रघंटाः मां दुर्गा के इस रूप के पूजन से मिलती है शत्रु पर विजय

locationसूरतPublished: Oct 04, 2016 07:24:00 am

मां के इस रूप से भक्त के मन में साहस आ जाता है, क्योंकि ये सत्य की रक्षा के लिए सदैव युद्ध के लिए तैयार रहती हैं। इन्होंने कमल का पुष्प, कमंडल आदि शुभ चिह्न धारण किए हैं।

मां दुर्गा का तृतीय स्वरूप है – चंद्रघंटा है। इन्हें यह नाम एक विशेषता के कारण मिला है। इन्हें चंद्रघंटा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि मां के माथे पर घंटे के आकार में अर्धचंद्र है। मां का यह रूप बहुत शांतिदायक है। इनके पूजन से मन को शांति की प्राप्ति होती है। ये भक्त को निर्भय कर देती हैं। देवी का स्मरण जीवन का कल्याण करता है।
इनका रंग उज्ज्वल है। इनसे स्वर्ण के समान आभा निकलती है, इसलिए जहां इनका आगमन होता है, वहां से अशुभता का अंधेरा दूर हो जाता है। इनके तीन नेत्र, दस भुजाएं हैं। 

मां के इस रूप से भक्त के मन में साहस आ जाता है, क्योंकि ये सत्य की रक्षा के लिए सदैव युद्ध के लिए तैयार रहती हैं। इन्होंने कमल का पुष्प, कमंडल आदि शुभ चिह्न धारण किए हैं। वहीं, धनुष-बाण, खड्ग, तलवार, त्रिशूल व गदा भी धारण करती हैं। इन्होंने गले में श्वेत पुष्पों का हार पहना है। मां का वाहन सिंह है जो साहस व शक्ति का प्रतीक है। इनकी प्रसन्नता के लिए इन मंत्रों का पाठ करें-
ध्यान मंत्र

वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्धकृत शेखरम्। 

सिंहारूढा चंद्रघंटा यशस्वनीम्॥ 

मणिपुर स्थितां तृतीय दुर्गा त्रिनेत्राम्। 

खंग, गदा, त्रिशूल,चापशर,पदम कमण्डलु माला वराभीतकराम्॥ 

पटाम्बर परिधानां मृदुहास्या नानालंकार भूषिताम्। 

मंजीर हार केयूर,किंकिणि, रत्नकुण्डल मण्डिताम॥ 
प्रफुल्ल वंदना बिबाधारा कांत कपोलां तुगं कुचाम्। 

कमनीयां लावाण्यां क्षीणकटि नितम्बनीम्॥

स्तोत्र मंत्र

आपदुध्दारिणी त्वंहि आद्या शक्तिः शुभपराम्। 

अणिमादि सिध्दिदात्री चंद्रघटा प्रणमाभ्यम्॥ 

चन्द्रमुखी इष्ट दात्री इष्टं मन्त्र स्वरूपणीम्। 

धनदात्री, आनन्ददात्री चन्द्रघंटे प्रणमाभ्यहम्॥ 
नानारूपधारिणी इच्छानयी ऐश्वर्यदायनीम्। 

सौभाग्यारोग्यदायिनी चंद्रघंटप्रणमाभ्यहम्॥

 कवच 

रहस्यं श्रुणु वक्ष्यामि शैवेशी कमलानने। 

श्री चन्द्रघन्टास्य कवचं सर्वसिध्दिदायकम्॥ 

बिना न्यासं बिना विनियोगं बिना शापोध्दा बिना होमं। 

स्नानं शौचादि नास्ति श्रध्दामात्रेण सिध्दिदाम॥ 
कुशिष्याम कुटिलाय वंचकाय निन्दकाय च न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचितम्॥

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