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सांसों पर भारी पड़ रहा हवा में घुल रहा जहर

locationसूरतPublished: Jun 14, 2020 04:24:17 pm

दो महीने के लॉकडाउन ने काफी हद तक सुधारे थे, अनलॉक वन में उद्योगों को मंजूरी के बाद फिर खराब होगी हवा, धूलभरा होगा सूरत समेत दक्षिण गुजरात का आसमान

सांसों पर भारी पड़ रहा हवा में घुल रहा जहर

सांसों पर भारी पड़ रहा हवा में घुल रहा जहर

विनीत शर्मा

सूरत. बीते तीन दशक से पर्यावरण प्रदूषण का असर आम आदमी की जिंदगी पर भारी पडऩे लगा है। सांस और किडनी के मरीजों की संख्या में इस दौरान खासा इजाफा हुआ है। मेडिकल विशेषज्ञों के मुताबिक इसके लिए सीधे तौर पर हवा में घुल रहा जहर जिम्मेदार है। लॉकडाउन के पहले तीन चरणों में उद्योग बंद हुए तो चिमनियों ने भी आग उगलनी बंद कर दी थी। इसका असर हवा में देखा जा रहा था। चिमनियां शांत हुईं तो उद्योगों से निकलने वाला वेस्ट भी थम गया। इसका असर तापी और शहर की खाडिय़ों में देखने को मिला। अनलॉक वन में जब औद्योगिक गतिविधियों को पूरी तरह से दी गई छूट एक तरह से हवा को जहरीली बनाने का लाइसेंस है। इस दौरान हवा को साफ रखने के जो उपाय सरकारी स्तर पर और उद्यमियों की ओर से किए जाने थे, उन पर विचार भी नहीं किया गया। अगले कुछ दिनों में यह रफ्तार पकड़ेंगे तो दो महीने में साफ हुई आबोहवा फिर जहरीली होने लगेगी। सूरत समेत पूरे दक्षिण गुजरात का आसमान फिर धूलभरा दिखने लगेगा। ऑक्सीजन पहले की तरह खुले आसमान में ही नहीं, नर्मदा, तापी और दमण गंगा के पानी में भी कम होने लगेगी। पर्यावरण जानकार मानते हैं कि दक्षिण गुजरात में इसका हर तरफ असर दिखना तय है।

सूरत समेत दक्षिण गुजरात मेें केमिकल, प्रोसेसिंग समेत हजारों उद्योग लगे हुए हैं। अंकलेश्वर, दहेज और वापी में केमिकल उद्योंगों का आलम यह है कि लॉकडाउन से पहले तक हवा में ऑक्सीजन की मौजूदगी को तलाश पाना बेहद मुश्किल टास्क था। सांस के साथ हवा में मौजूद धूल के कण ही नहीं चिमनियों की उगली राख भी लोग शरीर में ले रहे थे। दूसरे शहरों के लोगों के लिए औद्योगिक पट्टी के इन रास्तों से मुंह पर पट्टी लगाकर निकलना भी सजा से कम नहीं था। लॉकडाउन के बीते दो महीनों में लोग घरों में कैद हुए, उद्योग-धंधों पर ताला लगा तो पूरे दक्षिण गुजरात की आबोहवा में गजब का सुधार आया है।
सड़कों पर वाहनों की रेलमपेल पर ब्रेक लगा और उद्योगों में मशीनों की खटपट थमी तो प्रदूषण के जिम्मेदार तत्वों का बनना और वातावरण में बहना बंद हो गया था। जब वाहनों की रेलमपेल नहीं थी, इसलिए खुले आसमान के नीचे प्रदूषण का स्तर पर भी न्यूनतम था। लॉकडाउन से पहले एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआइ) 110 से अधिक था, जो दो महीने में घटकर 90 से कम हो गया है। सूरत समेत दक्षिण गुजरात में हवा में ऑक्सीजन की मात्रा में खासा इजाफा हुआ है। इस फर्क को आम आदमी भी महसूस करने लगा है। धीरे-धीरे चिमनियां धुआं उगलेंगी तो हवा में भी धूल जमा होगी और चीजें धुंधलाने लगेंगी।

तापी में नहीं जमी जलकुंभी

उद्योगों का केमिकल वेस्ट सीधे नदी में नहीं गिरने से बीते दो महीनों में तापी की सतह पर जलकुंभी के जाल तैरते नजर नहीं आए। नदी में वेस्ट गिरना बंद हुआ तो तापी में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ी। नदी के बहते पानी में ऑक्सीजन की मात्रा (डिसॉल्व ऑक्सीजन लेवल) सात से नौ मिलीग्राम होनी चाहिए। फिलहाल तापी में ऑक्सीजन का यह लेवल बना हुआ है। नर्मदा नदी में भी ऑक्सीजन की मात्रा संतोषजनक स्तर पर आ गई है। अकेले तापी ही नहीं दक्षिण गुजरात की नर्मदा और दमण गंगा नदी के पानी की गुणवत्ता में भी गुणात्मक सुधार हुआ है।

स्तर बनाए रखना बड़ी चुनौती

लॉकडाउन के तीन चरणों में साफ हुए हवा-पानी के स्तर को बनाए रखना बड़ी चुनौती है। तकनीकी विशेषज्ञों के मुताबिक पर्यावरण अनुकूलन पर शुरू होने वाले खर्च को वहन करने के लिए न सरकार तैयार है और न उद्यमी ही अपने लाभ को कम कर पर्यावरण पर रकम खर्च करना चाहते। यही वजह है कि जैसे जैसे अनलॉक वन गति पकड़ेगा, सबकुछ पहले जैसा होने लगेगा। नदी के पानी में ऑक्सीजन घटेगी तो हवा में भी जहरीली गैसें ऑक्सीजन की मिठास को कम करेंगी। पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि इकोनॉमी को गति देने के लिए पर्यावरण के पहलुओं को सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर नेपथ्य में धकेला जाएगा।

यह हों उपाय

कोरोना के संक्रमणकाल ने एक अवसर दिया है कि हम कुछ जरूरी उपाय कर लें तो प्रदूषण के स्तर को ज्यादा फैलने से रोका जा सकता है। उद्यमी बीते 60 दिनों से बंद पड़े अपने उद्यमों की मरम्मत कराने जा रहे हैं। लगे हाथ ऐसे उपाय किए जा सकते हैं, जिससे प्रदूषण को कम किया जा सके। पर्यावरण विशेषज्ञ मानते हैं कि प्रकृति के बिगड़ते संतुलन को साधने के लिए गंभीर प्रयास करें तो पर्यावरण परिवर्तन के खतरों को न्यूनतम कर सकते हैं। साथ ही कोरोना के खिलाफ जंग अभी मुकाम तक नहीं पहुंची है। इस टैम्पो को बनाए रखना है, जिससे कि हम नुकसान को कम से कम करने में सफल हो पाएं। शहर में जलवायु परिवर्तन पर काम कर रहे कमलेश याग्निक के मुताबिक अवसरों का लाभ उठाकर हम बेहतर दुनिया आने वाली पीढिय़ों को दे पाएंगे। इसके लिए ईमानदार कोशिश करने की जरूरत है।

औपचारिक रह गए पर्यावरण संरक्षण के आयोजन

हम भले हर साल पर्यावरण दिवस मनाकर हवा और पानी में घुल रहे जहर पर चिंता जता लेते हों, लेकिन हकीकत यह है कि लापरवाही हर स्तर पर हो रही है। उद्योगों में ही नहीं आम आदमी भी अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल से परहेज बरतते हुए निजी वाहनों को तरजीह दे रहा है। पौधों को रोपकर उन्हें पालने-पोसने की जिम्मेदारी निभाने को कोई तैयार नहीं है। कभी धार्मिक आयोजनों के नाम पर तो कभी सहूलियत के लिए नदी और जल के अन्य प्राकृतिक स्रोतों को गंदा करने से नहीं चूक रहे। हमारी इन गलतियों का खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ी भुगतेगी।
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