सूरत

नियति न बन जाए रिसॉर्ट पॉलिक्टिस

कांग्रेस को करना होगा आत्ममंथन, खोजनी होगी वजह कि आखिर अपने ही नेतओं से क्यों उठ रहा कार्यकर्ताओं का भरोसा

सूरतJun 11, 2020 / 08:09 pm

विनीत शर्मा

नियति न बन जाए रिसॉर्ट पॉलिक्टिस

विनीत शर्मा

सूरत. कांग्रेस के लिए सत्ता संजीवनी की तरह है। लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहकर जब दूसरे दल खुद को और मजबूत करते हैं, कांग्रेस लगातार कमजोर होती जाती है। उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात इसके स्पष्ट उदाहरण हैं। गुजरात में तो चुनावों के ऐलान के साथ ही कांग्रेस का पतझड़ शुरू हो जाता है। लोकसभा-विधानसभा चुनाव हों या फिर राज्यसभा चुनाव कांग्रेस के लिए उस वक्त अपने विधायकों और नेताओं को संभालना सबसे बड़ा टास्क हो जाता है। मौजूदा विधानसभा में तो लगातार दूसरा मौका है जब राज्यसभा चुनावों के ऐलान के साथ ही विधायकों ने अपनी निष्ठा बदलने का सिललिसा शुरू कर दिया। बीते कुछ दिनों में जिस तरह का घटनाक्रम हुआ है उससे साफ है कि कांग्रेस विधायकों के लिए राज्यसभा चुनाव एक बार फिर पालाबदल का अवसर लेकर आया है।

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कांग्रेस हर बार ऐसे मौकों पर पार्टी छोड़कर गए विधायकों को बिका हुआ साबित करने की कोशिश करती है। मध्यप्रदेश में पार्टी छोड़कर गए ज्योतिरादित्य सिंधिया पर भी कांग्रेस ने लाभ और लोभ की तोहमतें लगा दीं। वहां तो कांग्रेस ही सरकार में थी, लेकिन पाला बदल के बाद अल्पमत में आ गई। उस वक्त का तमाश पूरे दश्ेा ने देखा था। आलाकमान को सोचना होगा कि पार्टी के भीतर भी सबकुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। हो सकता है लंबे समय तक सत्ता से बाहर रहकर कभी प्रलोभन के ऐसे मामले बने भी हों, लेकिन क्या हर बार ऐसा होता है। बरसों से कांग्रेस की राजनीति करते आ रहे लोग अचानक बिक कैसे जाते हैं। दूसरी बात जो आज बिके हैं, उनके पास खरीदार पहले भी आए होंगे, उस वक्त दाम कम थे या घर में उनकी पूछपरख ज्यादा थी। साफ है पार्टी में लंबे समय से सुनी नहीं जा रही होगी और चुनावों के मौसम ने उन्हें नेताओं को मचा चखाने का अवसर दे दिया। दक्षिण गुजरात से पार्टी छोड़कर गए जीतू चौधरी सबसे ज्यादा मुखर थे। इसके बावजूद उनका मोहभंग हुआ तो कहीं न कहीं संगठन भी जिम्मेदार रहा होगा।
प्रदेश कांग्रेस प्रमुख अमित चावडा, कांग्रेस विधानसभा दल (सीएलपी) नेता परेश धनानी और ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के गुजरात इन्चार्ज राजीव सातव के बीच आपस में ही सामंजस्य नहीं है। राज्यसभा चुनाव से पहले गुजरात कांग्रेस को इसी अंदरूनी कलह का सामना करना पड़ रहा है। सिद्धार्थ पटेल, नरेश रावल और अर्जुन मोढवाडिया जैसे सीनियर नेता उपेक्षित हैं। नरहरि अमीन और फिर कुंवरजी बावलिया इसी उपेक्षा का शिकार होकर भाजपा में गए थे। यह आत्ममंथन का समय भी है कांग्रेस के लिए। कुछ महीने बाद प्रदेश की लोकल सरकारें चुनी जाएंगी और फिर गुजरात विधानसभा के चुनाव सिर पर होंगे। ऐसे में समय रहते कारण नहीं तलाशे गए तो अगले पांच साल फिर कांग्रेस को गुजरात में रिसॉर्ट पॉलिटिक्स ही करनी होगी। रिसॉट पॉलिटिक्स शतक से ज्यादा पुरानी पार्टी की गुजरात में नियति न बन जाए।

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