2004 में फेसबुक, 2005 में यूट्यूब और 2006 में ट्विटर की शुरुआत होती है और कुछ साल बाद आज 2022 में हालात हैं कि इन अमरीकी कंपनियों पर भाजपा, कांग्रेस जैसे बड़े दलों से लेकर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) जैसे क्षेत्रीय दल तक निर्भर होकर रह गए हैं।
सभी कोई इन प्लेटफॉर्म पर मौजूदगी बढ़ाना चाहता है इसके लिए आईटी विंग का गठन किया गया है, लाखों गु्रप तैयार किए गए हैं।
क्यों उठ रहे सवाल
अगस्त 2020 में फेसबुक की कंटेंट पॉलिसी को लेकर सवाल उठे और आरोप लगे कि भारत में खास विचारधारा से जुड़े पोस्ट को रोकने के नियम लागू करने में पक्षपात है। वॉट्सएप और इंस्टाग्राम फेसबुक के अधीन हैं।
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डेढ़ दशक में सोशल मीडिया पर हुए भारी बदलाव विशेषज्ञ इस बात से इनकार नहीं करते हैं कि ये कंपनियां किसी खास विचारधारा या पार्टी के समर्थकों के अकाउंट से पोस्ट होने वाले कंटेंट को वायरल करवा सकती हैं या उस कंटेंट को ज्यादा लोगों तक पहुंचने से रोक सकते हैं।क्यों उठ रहे सवाल
अगस्त 2020 में फेसबुक की कंटेंट पॉलिसी को लेकर सवाल उठे और आरोप लगे कि भारत में खास विचारधारा से जुड़े पोस्ट को रोकने के नियम लागू करने में पक्षपात है। वॉट्सएप और इंस्टाग्राम फेसबुक के अधीन हैं।
दिसंबर 2021 में ट्विटर के सीईओ से पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनके अकाउंट के फॉलोवर्स कम होने की शिकायत की और यह भी कहा था कि 'भारत के विनाश में मोहरा न बनें'। ट्विटर और यूट्यूब भी अमरीकी मालिकाना हक वाली कंपनियां हैं।
इन विधानसभा चुनावों में यूट्यूब, वॉट्सऐप और फेसबुक में परोसा जा रहा कंटेंट शहरों से गांवों तक मतदाताओं को प्रभावित कर रहा है। विदेशी कंपनियों पर राजनीतिक दलों की निर्भरता लोकतंत्र के लिए सही नहीं है।
-प्रो. रविकांत, लखनऊ विश्वविद्यालय, उत्तरप्रदेश।
-प्रो. रविकांत, लखनऊ विश्वविद्यालय, उत्तरप्रदेश।

भारत के चुनावी तंत्र में राजनीतिक पार्टियां सफलता के अपने पारंपरिक मंत्र बदलने को मजबूर हो गई हैं। वॉल पेंटिंग, पम्फ्लेट्स, पर्चे, बोर्ड, होर्डिंग, बैनर, झंडे, बैज का युग बीत गया।
अब वर्चुअल रैली, वर्चुअल कॉन्फ्रेंस, हैशटैग, टूलकिट, प्रोपेगेंडा फैलाने वाले वीडियो-ग्राफिक्स, वायरल मैटेरियल, कंटेंट शेयरिंग के सहारे चुनावी महौल बनाने का जमाना है। चुनाव की जितनी गर्मी जमीन पर नजर नहीं आती उससे कई गुणा आंच फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब, इंस्टाग्राम, वॉट्सऐप, टेलीग्राम पर महसूस की जा सकती है।
ये सभी कंपनियां अमरीकी हैं। ऐसे में विशेषज्ञ सवाल उठा रहे हैं कि अमरीकी हितों के दबाव में ये कंपनियां पार्टी विशेष को नफा या नुकसान पहुंचा सकती हैं।