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विश्व दिव्यांग दिवस पर विशेष : दोनों हाथ नहीं होते हुए भी मनोज बने सफल चित्रकार

locationसूरतPublished: Dec 06, 2019 12:24:11 pm

मनोज माउथ पेंटिंग के जरिए राज्य और राष्ट्रीय स्तर में कई पुरस्कार जीत चुके हैं

विश्व दिव्यांग दिवस पर विशेष : दोनों हाथ नहीं होते हुए भी मनोज बने सफल चित्रकार

विश्व दिव्यांग दिवस पर विशेष : दोनों हाथ नहीं होते हुए भी मनोज बने सफल चित्रकार

सूरत.

‘अपने हाथों की लकीरों को क्या देखते हो/ किस्मत तो उनकी भी होती है, जिनके हाथ नहीं होते – सूरत के दिव्यांग मनोज भींगरे इन पंक्तियों का साकार रूप हैं। उन्होंने साबित कर दिया है कि व्यक्ति की किस्मत हाथों से नहीं, मनोबल, मेहनत और लगन से लिखी जाती है। दोनों हाथ नहीं होने के बावजूद मनोज सफल चित्रकार है। वह माउथ पेंटिंग के जरिए राज्य और राष्ट्रीय स्तर में कई पुरस्कार जीत चुके हैं।
नवागाम डिंडोली निवासी मनोज भींगारे अपनी चित्रकला से देश-विदेश में जाने जाते हैं। उनकी चित्रकला की खास बात यह है कि वह हाथों से नहीं, मुंह से चित्र बनाते हैं। दोनों हाथ नहीं होने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। कुछ कर दिखाने की ठान कर उन्होंने मुंह से चित्र बनाना शुरू किया और धीरे-धीरे उनकी कला की कीर्ति फैलने लगी। वर्ष 1994 में जब मनोज 5वीं कक्षा के छात्र थे, तब वह पिता गोपाल और मां शोभा के साथ बस से नासिक गए थे।
बस हादसे में उनका एक हाथ मौके पर ही कट गया था, जबकि दूसरे पर गंभीर चोट आई। बाद में चिकित्सकोंं को उनका दूसरा हाथ भी काटना पड़ा। मनोज के दोनों हाथ गंवाने से परिवार पर जैसे आसमान टूट पड़ा। दोस्त-रिश्तेदार दिलासा देते तो परिवार की पीड़ा और बढ़ जाती।
नहीं मानी हार
परिवार को अहमदाबाद के अपंग मानव मंडल के बारे में पता चला तो 1995 में माता-पिता मनोज को लेकर अहमदाबाद पहुंचे, लेकिन संस्था ने यह कहकर प्रवेश देने से मना कर दिया कि दोनों हाथ नहीं होने से यह अपने कार्य कैसे करेगा। वहीं के एक शिक्षक को मनोज ने बताया कि वहां पहले एक एंसा विद्यार्थी था, जो मुंह और पेरों से अपना सारा काम करता था। सूरत लौट कर मनोज ने भी मुंह और पैरों से लिखना तथा अपने काम खुद करना शुरू किया। 1996 में वह फिर अहमदाबाद की संस्था में पहुंचे। इस बार मुंह और पैरो से उनके काम को देख संस्था ने उन्हें प्रवेश दे दिया।
इस संस्था में मनोज ने 10वीं तक पढ़ाई की। मनोज का कहना है कि उन्हें पहले से चित्रकला का शौक था। उन्होंने मुंह से चित्र बनाना शुरू किया। पढ़ाई के दौरान 1999 में उन्होंने दिल्ली में हुई चित्रकला स्पर्धा में हिस्सा लिया। इसमें उन्हें राष्ट्रीय बालश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यहीं से उन्होंने चित्रकला के क्षेत्र में भविष्य बनाने की ठान ली।10वीं की पढ़ाई के बाद मनोज ने गांधीनगर के सदपरिवार विकलांग पुनर्वास केंद्र में 11वीं और 12वीं की पढ़ाई की।
इसके बाद अहमदाबाद के सी.एन.महाविद्यालय में फाइन आट्र्स में प्रवेश लेने पहुंचे। महाविद्यालय ने प्रवेश देने से मना किया तो उन्होंने हार नहीं मानी। दूसरे साल फिर प्रवेश के लिए प्रयास किया। अपने चित्रों का काम दिखाया, ट्राइल बेस पर प्रवेश देने की गुजारिश की। इस बार उनकी चित्रकला और मनोबल को देखते हुए प्रवेश दे दिया गया। फाइन आट्र्स की डिग्री के साथ इस कॉलेज से ही उन्होंने आर्ट टीचर डिप्लोमा (एटीडी) और बीए किया। मनोज ने सूरत की दिव्यांग शाला में बतौर शिक्षक सेवाएं दीं। इसके माध्यम से वह परिवार की आर्थिक सहायता भी करने लगे। सिंगापुर और कतार में आयोजित चित्र प्रदर्शनी में उनके चित्रों को स्थान दिया गया।
जीवन साथी भी बनीं संबल
मनोज का कहना है कि हाथ नहीं होने के कारण जीवन साथी मिलना मुश्किल था। मां कहीं भी बात चलातीं तो न ही सुनने को मिलता। बुरहानपुर में मां की सहेली की बेटी भावना से शादी की बात चलाई तो सहेली ने मना कर दिया, लेकिन धीरे-धीरे भावना से बात होने लगी। भावना उन्हें समझने लगी। मनोज की मेहनत और लगन से प्रभावित होकर उसने उनसे शादी कर ली। अब भावना भी उनका संबल बन गई हैं।

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